Published By:बजरंग लाल शर्मा

आत्मा दृष्टा है तथा जीव दृश्य है। आत्मा पूरे स्वप्न के संसार को एक साथ देखती है। उसके लिए बीज, वृक्ष व आम एक साथ मौजूद है। इसलिए यहां कोई कार्य कारण नहीं है। सारा अस्तित्व एक साथ हर क्षण मौजूद है।
जीव में चेतना की शक्ति सिकुड़ जाती है, वह घटना को खंड खंड में बांटकर देखती है। कीड़ी पूरे कमरे को खंड खंड में बांटकर कई दिनों में देख पाते हैं। मनुष्य की दृष्टि पूरे कमरे को एक ही क्षण में एक साथ देख लेती है।
मनुष्य जिस घटना को पहले बीज रूप, फिर वृक्ष रूप, फिर फल के रूप में देखता है। आत्मा की पूर्ण दृष्टि समूची घटना को एक साथ उसी क्षण में देख लेती है। वहां कोई भी घटना कार्य कारण अथवा पहले-पीछे के रूप में खंडित नहीं होती। इसलिए आत्मा के इस प्रकार के देखने को अखंड कहते हैं ।
अखंड वस्तुओं में किसी प्रकार का कोई बदलाव नहीं होता है। वे जैसी है वैसी ही बनी रहती हैं। क्योंकि परिवर्तन के लिए समय चाहिए, थोड़ा-थोड़ा दिखना चाहिए और ऐसा वहां है नहीं। कली कभी फूल बनती नहीं। वहां कली भी है और फूल भी। दोनों का होना एक साथ है, दोनों का दिखना एक साथ है।
इस कारण वहां न तो कार्य-कारण का भाव पैदा होता है और न ही परिवर्तन दिखाने वाले समय का। न कुछ नया बनता है, न कुछ नष्ट होता है। वस्तुएं शाश्वत हैं। वह महाकारण की कालातीत अवस्था है, जहां केवल वस्तुएं हैं तथा उनको देखने वाली केवल आत्मा है।
"जित जैसा रंग चाहिए, तहां तैसा ही देखत।
ना समारे नए किन, नए पुराने पेखत।।"
जहां पर जैसा रंग होना चाहिए वहां पर उसी के अनुरूप रंग विद्यमान है वहां पर ना कोई वस्तु नई होती है और न ही कोई पुरानी होती है।
बजरंग लाल शर्मा
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