Published By:धर्म पुराण डेस्क

पाश्चात्य और भारतीय दर्शन में क्या है अंतर? जानिए क्या हैं दोनों के लक्ष्य 

पाश्चात्य एवं भारतीय दर्शन की तुलना करने पर यह साफ हो जाता है कि दोनों के दृष्टिकोण मित्र हैं. दर्शन के लिए पाश्चात्य जगत् में फिलॉसफी शब्द का प्रयोग हुआ है. 

यह फिलॉसफी ग्रीक के दो शब्दों के योग से बना है- फिलॉस तथा सोफिया फिलॉस का अर्थ है अनुराग या प्रेम तथा सोफिया का अर्थ है ज्ञान. इस प्रकार, फिलॉसफी का अर्थ होता है ज्ञान के लिए प्रेम या अनुराग. लेकिन, ज्ञान के प्रति प्रेम तो शुद्ध बौद्धिक है तथा जीवन से इसका संबंध नहीं है. 

इसके ठीक विपरीत भारतीय दर्शन शब्द दृश धातु से बना है जिसका अर्थ होता है जिसके द्वारा देखा जाए. भारत में दर्शन उस विद्या को कहा जाता है। जिसके द्वारा तत्व का साक्षात्कार हो सके. भारत के दार्शनिक केवल तत्व की बौद्धिक व्याख्या से ही संतुष्ट नहीं होते बल्कि वह तत्व की अनुभूति प्राप्त करना चाहते हैं.

पाश्चात्य दर्शन का आरंभ आश्चर्य एवं उत्सुकता से हुआ है. वहां के दार्शनिक अपनी जिज्ञासा को शांत करने के उद्देश्य से विश्व ईश्वर और आत्मा के संबंध में सोचने के लिए प्रेरित हुआ है. 

पाश्चात्य दर्शन का अनुशीलन किसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए न होकर स्वयं ज्ञान के लिए किया गया है. इसका मुख्य लक्ष्य तत्वज्ञान की प्राप्ति है, इसलिए, पाश्चात्य दर्शन को मानसिक कसरत कहा जाता है. इसके विपरीत भारतीय दर्शन का लक्ष्य केवल तत्वज्ञान की प्राप्ति ही नहीं है बल्कि दुःखों एवं बुराइयों को दूर करके व्यक्ति को मोक्ष दिलाना है. 

प्रो. मैक्समूलर के शब्दों में- "भारत में दर्शन का अध्ययन केवल ज्ञान प्राप्त करने के लिए नहीं बल्कि जीव के चरम लक्ष्य की प्राप्ति के लिए किया जाता है. इस प्रकार, पाश्चात्य दर्शन का दृष्टिकोण सैद्धांतिक है, जबकि भारतीय दर्शन का दृष्टिकोण व्यावहारिक.

पाश्चात्य का लक्ष्य परम तत्व का ज्ञान प्राप्त करना है. यहां आलोच्य विषय सुविधानुसार परिवर्तित कर दिया जाता है. इसके लिए पाश्चात्य दार्शनिकों ने वैज्ञानिक दृष्टिकोण को अपनाया है. 

पाश्चात्य दर्शन में विज्ञान की प्रधानता रहने के कारण दर्शन और धर्म का संबंध विरोधात्मक माना जाता है. इसी कारण पाश्चात्य दर्शन में धर्म की उपेक्षा की गयी है. इसके विपरीत भारतीय दर्शन में सत्य के साक्षात्कार के लिए जप, तप, योग आदि साधनों की मदद लेनी पड़ती है. 

ये साधन उसे दिव्य दृष्टि प्रदान करते हैं और वह सत्य का साक्षात्कार करने में समर्थ हो पाता है. यह धार्मिक दृष्टिकोण है. पाश्चात्य परंपरा में दर्शन और धर्म को परस्पर भिन्न माना जाता है, लेकिन भारतीय परंपरा में दर्शन और धर्म सदैव अभिन्न रूप में साथ-साथ रहते हैं. इस प्रकार, पाश्चात्य दर्शन का दृष्टिकोण वैज्ञानिक है, जबकि भारतीय दर्शन का धार्मिक.

पाश्चात्य में धार्मिक चिंतन को बौद्धिक चिंतन माना गया है. बुद्धि के द्वारा वास्तविक और सत्य ज्ञान की प्राप्ति हो सकती है. ऐसा सभी दार्शनिकों ने माना है. पाश्चात्य दर्शन में बुद्धि को ही यथार्थ ज्ञान का प्रमुख साधन बताया जाता है, बौद्धिक ज्ञान ही यहां सर्वस्व है. 

सुकरात, प्लेटो, अरस्तु, डकार्ट, स्पिनोजा, लाइबनीज, हीगेल आदि बुद्धिवादी विचारक बुद्धि को ही ज्ञान का एकमात्र साधन बता कर बौद्धिक ज्ञान को सर्वाधिक महत्व देते हैं. ठीक इसके विपरीत भारतीय विचारक बुद्धि को परम तत्व के ज्ञान की प्राप्ति में उपयोगी साधन नहीं मानते. 

बुद्धि की क्षमता सीमित है. इससे प्राप्त ज्ञान में ज्ञाता और ज्ञेय का द्वैत सदा बना रहता है. बौद्धिक ज्ञान सदैव संदेहात्मक एवं अपूर्ण रहता है. भारतीय परंपरा में बुद्धि के स्थान पर आध्यात्मिक अनुभूति को ही ज्ञान के साधन के रूप में अपनाया जाता है. 

आध्यात्मिक स्तर पर ज्ञाता और ज्ञेय के बीच अंतर नहीं रहता. आध्यात्मिक ज्ञान संदेह रहित, निश्चित एवं पूर्ण होता है. आध्यात्मिक अनुभूति परमतत्व का मान दिलाने में समर्थ है. इस प्रकार, पाश्चात्य परंपरा में बुद्धि पर अधिक जोर दिया जाता है। तो भारतीय परंपरा में आध्यात्मिक अनुभूति पर.

पाश्चात्य विचारक दर्शन को नीतिशास्त्र, तर्कशास्त्र, प्रमाणशास्त्र, तत्वज्ञान, धर्मशास्त्र आदि कृत्रिम खंडों में विभक्त करके अध्ययन करते हैं. यह विधि विश्लेषणात्मक है. परंतु, भारतीय दर्शन में दूसरी पद्धति अपनायी गयी है. 

भारतीय विचारक दर्शन को इसकी संपूर्णता में ग्रहण करते हैं. यहां दर्शन को तर्कशास्त्र, प्रमाणशास्त्र, नीतिशास्त्र आदि कृत्रिम विभागों में तोड़ कर अध्ययन नहीं किया जाता. 

भारतीय परंपरा में नीतिशास्त्र, तर्कशास्त्र, प्रमाणशास्त्र, तत्वविज्ञान, धर्मशास्त्र आदि का अध्ययन एक साथ किया जाता है. इसलिए, इसकी विधि संश्लेषणात्मक कही जाती है. प्लेटो आदि कुछ विचारकों को छोड़ कर प्रायः सभी पाश्चात्य दार्शनिक इहलोक तक अपना अध्ययन सीमित रखते हैं. 

ये इहलोक के अलावा किसी अन्य लोक पर ध्यान नहीं देते. पाश्चात्य दर्शन इहलोक की ही सत्ता में विश्वास करता है, जबकि भारतीय दर्शन इहलोक के अतिरिक्त परलोक की सत्ता में भी विश्वास करता है. भारतीय विचारधारा में स्वर्ग और नरक की मीमांसा हुई जिनकी चार्वाक दर्शन को छोड़ कर सभी दर्शनों में मान्यता मिली है.

पाश्चात्य परंपरा में भौतिकवाद का अधिक बोलबाला है. वहां खाने-पीने एवं मौज उड़ाने पर विशेष जोर दिया जाता है. आत्मा की अपेक्षा शरीर को अधिक महत्व दिया जाता है. इसके विपरीत, भारतीय दर्शन में आध्यात्मिकता की प्रधानता है. 

यहां शरीर की अपेक्षा आत्मा को, इंद्रिय सुख की अपेक्षा आत्मसंयम को और भौतिक सिद्धियों की अपेक्षा आध्यात्मिक मूल्यों को अधिक महत्वपूर्ण माना जाता है. पाश्चात्य दार्शनिक भौतिकवाद से अधिक प्रभावित हैं, किंतु भारतीय विचारक अध्यात्मवाद होना पसंद करते हैं. 

साभार-कमलेश नंदिनी वेद अमृत


 

धर्म जगत

SEE MORE...........