"सखी री आतम रोग बुरो लग्यो, याको दारू न मिले तबीब ।
चौदे भवन में न पाइए, सो हुआ हाथ हबीब ।।"
महामति प्राणनाथ जी की इस वाणी को समझने के लिए पहले हमें यह समझना होगा कि आत्मा क्या है।
यहाँ जिस आत्मा के विषय मे कहा जा रहा है वह दृष्टा है, वह अक्षर पुरुष की नींद में बने दुख रूपी जन्म मृत्यु के संसार को देखने के लिए अपने घर परमधाम से इन उत्तम मानव जीव के साथ जुड़ी है। इन दृष्टा आत्माओं का परमधाम में अपना अखण्ड शरीर है।
इनको ब्रह्मात्मा कहा गया है। ये अपने परमधाम के परात्म शरीर को छोड़कर अपने सूक्ष्म शरीर (आत्मा) के द्वारा उत्तम मानव जीवों के स्वप्न के शरीर के द्वारा इस दुख के संसार को देखती हैं ।
यहां एक ब्रह्मात्मा अपनी दूसरी सखी ब्रह्मात्मा से कहती है कि हे सखी ! मेरी आत्मा को एक भयंकर रोग लग गया है। इसकी कोई भी औषधि (दारू) नहीं है और इसका कोई भी वैद्य (तबीब) नहीं है। यहां तक कि चौदह लोकों के प्रमुख देवता ब्रह्मा, विष्णु, महेश के पास भी इसका कोई उपचार नहीं है। इसका उपचार तो एक मात्र पूर्ण ब्रह्म परमात्मा अक्षरातीत श्री कृष्ण के पास में ही है।
"आतम रोग कासों कहिए, जिन पीठ दई पर आतम ।
ए रोग क्योंए ना मिटे, जोलो देखे ना मुख ब्रह्म । "
आत्म रोग किसको कहा जाए ? यह आत्मा अपने मूल परात्म शरीर से बिछड़ कर संसार के दुख को देखने हेतु यहां आ गई है। इनके लिए अपने परात्म शरीर से अलग होना ही आत्म रोग है। यह रोग तब तक नहीं मिट सकता जब तक यह आत्मा जाग्रत होकर परब्रह्म परमात्मा के सम्मुख खड़ी होकर उनके दर्शन ना करले।
ब्रह्मात्माओं का अपना परात्म शरीर परमधाम में नींद में है तथा उसका सूक्ष्म शरीर (आत्मा) परमात्मा शरीर से अलग होकर अक्षर पुरुष की नींद में बने स्वप्न के संसार में उत्तम मानव जीव के साथ जुड़कर यह दुख का नश्वर संसार देखता है।
ब्रह्म आत्माओं को विरह का रोग लगा है। यह रोग उस समय तक नहीं मिटेगा जब तक यह अपने परात्म शरीर के अंदर पुनः नहीं जाग जाएगी। यह तभी संभव है जब तक संसार के अंदर दुख देखने का कार्य पूरा न हो जाए। तब तक इन ब्रह्म आत्माओं को अपने शरीर, धाम तथा अपने स्वामी की विस्मृति बनी रहेगी, और वह उस समय तक सांसारिक दुख भोगती रहेगी। जब उसे सतगुरु के द्वारा अपने घर की पहचान हो जाएगी, तब वह अपने धाम तथा परमात्मा के लिए तड़पेगी उसी का नाम विरह है। यह विरह का रोग ही आत्मा का रोग है ।
बजरंग लाल शर्मा
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