 Published By:अतुल विनोद
 Published By:अतुल विनोद
					 
					
                    
मूल रूप से जिस जीवन को हम इतनी गंभीरता से जीते हैं वह परमात्मा के विलास का एक हिस्सा मात्र है| भारतीय दर्शन और वैदिक ज्ञान कहता है कि यह संसार परमात्मा के विलास(मनोरंजन की चाह) की परिणीति है|
सृष्टि के आरंभ में परमात्मा एक था परमात्मा अकर्ता है| उसके होने मात्र से एक ब्रम्ह पिंडी प्रकट हुआ, और उसकी बहुत हो जाने की इच्छा हुई| इसी इच्छा से सृष्टि का आरंभ हुआ| यूनिवर्स, आकाशगंगा, सौरमंडल और ग्रह, नक्षत्र, तारे बने, धीरे-धीरे जीवन की उत्पत्ति हुई|
हम सब ब्रह्म की तरह एक रोमांचकारी मनोरंजक यात्रा पर हैं| भारतीय दर्शन मानता है कि भौतिक जीवन एक मनोरंजक खेल है, हम सब उस परमात्मा के रंगमंच के अभिनेता हैं, ब्रह्म भी उसी परब्रह्म परमात्मा से पैदा हुआ एक सर्जन है | भले ही हम छोटे-छोटे सुख दुख रूपी खिलौनों में उलझे हुए हैं, लेकिन हमारा वास्तविक उद्देश्य उस चिरस्थाई परमात्मा में समा जाना है| वो परमात्मा जो कभी बदलता नहीं नष्ट नहीं होता| जो काल से भी परे है| जिसका वर्णन सम्भव नहीं जो शब्दों में भी बयां नहीं किया जा सकता|
हम सब मनुष्य हैं और उस ब्रम्ह के विलास यानि आनंद के लिए पैदा हुयी सृष्टि का हिसा हैं| सवाल ये है कि साधारण मनुष्य अपने जीवन में किस स्तर का मनोरंजन चाहता है? उसकी खोज गाड़ी, बंगला, पद या पैसे तक सीमित है लेकिन जिसकी चेतना विकसित हो जाती है उसे इन सांसारिक खिलोनो से तृप्ति नहीं मिलती| इसलिए वह असली मनोरंजन की तलाश करता है|
अंततः मानव की साधना रुपी जिद को पूरी करने के लिए परमात्मा को उसे असली आनंदरूप परमतत्व से परिचित कराना पड़ता है| दरसल वो ऐसा करता भी नहीं लेकिन उसके प्रभाव से ये स्वत ही होने लगता है|
एक बार जिसने असली रंग जान लिया उसे नकली रंग फीके लगने लगते हैं, इसका ये मतलब नहीं कि वो परम रंग में हमेशा के लिए डूब गया न ही वह अनंत आनंद का भागीदार हो गया, अभी तो वह भौतिक, सूक्ष्म और कारण शरीर से घिरे होने के कारण सीमित है तो सिर्फ उसे सिर्फ टेस्ट ही मिलेगा| उस आनंद की झलक ही इस जीवन को अच्छे से काटने के लिए काफी है| इस अवस्था में, उसका बच्चों की तरह छोटी छोटी बात पर रोना झींकना बंद हो जाता है|
निरंतर आपने कर्म के साथ असली आनंद की प्राप्ति के लिए योग मार्ग पर चलता हुआ मनुष्य एक जन्म में इतना योग्य हो जाता है कि उसकी जीवात्मा, मृत्यु के बाद शरीर छोड़कर (सूक्ष्म व कारण शरीर के साथ) अद्रश्य जगत में उच्च लोक प्राप्त करती है|
अद्रश्य उच्च लोक में भी यदि उसकी साधना चलती रहे तो वो "सूक्ष्म" शरीर छोड़कर, "कारण" शरीर के साथ और अधिक विकसित अद्रश्य जगत में प्रवेश करती है| जिसे स्वर्ग लोक कहते हैं| यदि स्वर्ग या उच्च कारण भाव जगत के खेल भी जीवात्मा को प्रभावित न करें तो वह "कारण" शरीर भी छोड़ देती है| इसके बाद जीवात्मा ऐसे जगत में प्रवेश करती है जहाँ विशुद्ध आत्मा ही हिलोरें लेता रहता है| ये आत्मा सर्व व्यापी है यही सर्वाधार आत्मा को प्राप्त हो जाना ही मुक्ति है|
atulyam
 
 
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