Published By:धर्म पुराण डेस्क

धर्म का अर्थ क्या है

मानव जीवन अनेक पक्षात्मक होता है, उनमें से धर्म और धर्म से उसकी संबद्धता भी एक पक्ष है। मानव जीवन की सामाजिकता एवं वैयक्तिकता का अध्ययन करने से यह ज्ञात होता है कि इतिहास में उसके विकास में अन्य पक्षों के यथा कला, विज्ञान, भाषा, तर्क, बुद्धि, भावना, संकल्प आदि की ही भांति धर्म की भी महत्वपूर्ण एवं प्रभावशाली भूमिका है।

यद्यपि धर्म मानव जीवन के प्रारंभ से ही प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से उसके साथ माना गया है तथापि परवर्ती चिंतन के विकास ने इसके स्वरूपादि के संबंध में कई अवधारणाएं प्रस्तुत की हैं। अतः धर्म के संदर्भ में प्रस्तुत किये जाने वाले किसी भी प्रकार के शोध अथवा तुलनात्मक अध्ययन से पूर्व धर्म के अर्थ एवं स्वरूप को जानना आवश्यक हो जाता है।

शब्दकोश के अनुसार धर्म शब्द की उत्पत्ति 'धृ' धातु से हुई है और 'धृ' का अर्थ है 'धारण करना'। ऋग्वेद में 'अतो धर्माणि धारयन्' के रूप में धर्म के धारण करने का उल्लेख मिलता है। महाभारत में 'धारणात् धर्म मित्याहुः धर्मोधारयते प्रजाः 2 के द्वारा एवं भगवद्गीता में धृत्यायया धारयते के द्वारा धारण का अर्थभाव स्पष्ट होता है। 'धारण करना को सरल शब्दों में अपनाना भी कहा जा सकता है।

अब प्रश्न उत्पन्न होता है कि क्या धारण करना या अपनाना धर्म है? इस संबंध में अत्यधिक अस्पष्टताएं हैं तथा विचारकों में मत वैभिन्य हैं।

ऋग्वेद में 'त्रीणि पदा विचक्रमे विष्णुर्गोपा अदाभ्यः। अतो धर्माणि धारयन्।। के द्वारा व्यापक अर्थ में कहा गया है कि परमात्मा ने आकाश में त्रिपाद परिमित स्थान में त्रिलोक का निर्माण कर उनमें धर्मों का धारण किया है। धृव्रतो' अर्थात् सत्यव्रत का धारण करने वाले अधिधा अर्थात् अच्छी तरह धारण कर, धर्मणामिरज्यासि' अर्थात् धर्मों के योग से अतिशय, ऐश्वर्य आदि को धारण करने का निर्देश मिलता है। 


 

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