भाव-निर्मम और निरहंकार होने से साधक का असत् - विभाग से सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है और सत्-विभाग में अर्थात ब्रह्म में अपनी स्वतः-स्वाभाविक स्थिति का अनुभव हो जाता है, जिसको ‘ब्राह्मी स्थिति' कहते हैं। इस ब्राह्मी स्थिति को प्राप्त होने पर शरीर का कोई मालिक नहीं रहता अर्थात शरीर को मैं मेरा कहने वाला कोई नहीं रहता, व्यक्तित्व मिट जाता है।
तात्पर्य यह हुआ कि हमारी स्थिति अहंकार के आश्रित नहीं है। अहंकार के मिटने पर भी हमारी स्थिति रहती है, जो 'ब्राह्मी स्थिति' कहलाती है। एक बार इस ब्राह्मी स्थिति (नित्ययोग) का अनुभव होने पर फिर कभी मोह नहीं होता। अगर अंत काल में भी मनुष्य निर्मम निरहंकार होकर ब्राह्मी स्थिति का अनुभव कर ले तो उसको तत्काल निर्वाण ब्रह्म की प्राप्ति हो जाती है।
निर्मम-निरहंकार होने से ब्रह्म की प्राप्ति, तत्त्वज्ञान हो जाता है। फिर मनुष्य ममतारहित, कामनारहित और कर्तृत्व रहित हो जाता है। कारण कि जीवने अहम् के कारण ही जगत् को धारण किया है- 'अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते', 'जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्' यदि वह अहम का त्याग कर दे तो फिर जगत् नहीं रहेगा।
ब्रह्म की प्राप्ति होने पर (अगर भक्ति के संस्कार हों तो) समग्र परमात्मा की प्राप्ति स्वतः हो जाती है, क्योंकि समग्र परमात्मा ब्रह्म की प्रतिष्ठा हैं।
मेरा कुछ नहीं है- इसको स्वीकार करने से मनुष्य 'निर्मम' हो जाता है, मेरे को कुछ नहीं चाहिए- इसको स्वीकार करने से मनुष्य 'निष्काम' हो जाता है। मेरे को अपने लिये कुछ नहीं करना है- इसको स्वीकार करने से मनुष्य ‘निरहंकार' हो जाता है।
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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