Published By:धर्म पुराण डेस्क

मानव जीवन का उद्देश्य क्या है, व्हाट इज द परपस ऑफ ह्यूमन लाइफ, मानव जीवन का मकसद, उद्देश्य, लक्ष्य, धर्म..

संसार के सभी प्राणी सुख-दुख भोगते हैं। जन्म से ही इस भोग का आरम्भ हो जाता है। इसमें भी तारतम्य है। एक व्यक्ति जन्म-समय से ही सुख-सुविधाओं की भरमार पाता है। उसके पैदा होते समय 'एयर कंडीशन्ड' कमरा होता है। 5-7 डॉक्टर, लेडी डॉक्टर, नर्से जच्चा और बच्चा की सेवा-शुश्रूषा के लिये तत्पर रहती हैं| 

क्षण-क्षण में बन्धु बान्धव की टेलीफोन उनकी व्यवस्था की जानकारी के लिये आते रहते हैं। पर इसका दूसरा पहलू भी है। एक माता खेत में अनाज या घास काट रही है। दोपहर का समय है। नीचे से पैर जल रहे हैं और ऊपर से भगवान भास्कर का प्रखर ताप उसके मस्तक को संतप्त कर रहा है। सारा शरीर पसीने से सराबोर है। 

इसी अवस्था में बालक का जन्म भी हो जाता है। सर्वथा असहाय अवस्था में वह अपने इस नवजात शिशु को खेत के साग-पत्ते, अन्न अथवा घास की टोकरी में रखकर, अपने सिर पर उठाकर घर चली आती है। 

स्पष्ट है कि उत्पन्न होते ही इन दोनों बालकों को जो सुख दुःख को उपलब्धियाँ हुई, उनका कुछ कारण होना चाहिए। यह केवल प्रकृति की लीला है- ऐसा कहकर पिण्ड छुड़ाना शोभा नहीं देता। अतः मानना पड़ेगा कि दोनों ने ही पहले कुछ ऐसे कर्म किये हैं, जिनके फलस्वरूप जन्मते ही उन्हें ये सुख और दुःख मिले। 'कर्म के फल', 'कर्म' और 'पुनर्जन्म'-तीनों की सिद्धि इस एक ऊपर के उदाहरण से हो जाती है।

लोग इसे स्वभाव, प्रकृति या नेचर कहकर संतोष भले ही कर लें, पर वस्तुतः इन समस्याओं का उत्तर तो तभी हो सकता है, जब इनके मूल कारण की खोज को जाय और वह मूल कारण विभिन्न प्रकार के शुभा-शुभ कर्म ही हो सकते हैं, जिनके फलस्वरूप प्राणिमात्र को तारतम्य या वैषम्य से जन्म से मृत्युपर्यन्त सुख-दुःख भोगने पड़ते हैं। 

कर्म भी फल देने में स्वतंत्र नहीं हैं; क्योंकि वे जड हैं। लोक में भी सेवा, नौकरी, व्यापार आदि कर्म स्वयं स्वतंत्र रूप से फल नहीं देते, अपितु किसी नियामक, स्वामी, व्यवस्थापक आदि के द्वारा फल देते हैं। नौकरी करने वाले को नौकरी रूप उसका कर्म स्वयं वेतन नहीं देता; किंतु जिसकी वह नौकरी करता है, वह स्वामी नौकरी का फल वेतन के रूप में देता है। अतः कर्मों का फल देने वाले एक 'कर्मफल दाता' को मानना पड़ेगा। लौकिक कर्मों के फल वे ही दे सकते हैं, जिन्हें कर्म करने वाले व्यक्तियों का, उनके द्वारा किये गये कर्मों और उनके फलों (परिणामों) का ठीक ठीक ज्ञान हो। 

किसी स्कूल या कॉलेज के प्रधानाध्यापक, प्रिंसिपल, कारखाने, मिल, फैक्ट्री आदि के मैनेजर इसके उदाहरण रूप दिये जा सकते हैं। वे अपने अधिकृत कर्म करने वाले सभी व्यक्तियों को जानते हैं उनके द्वारा किये जाने वाले कार्यों को जानते हैं, और उन कार्यों के फलों को जानकर, प्रत्येक व्यक्ति को उसके कर्म का फल नियमानुसार देते हैं। 

ठीक इसी प्रकार अनन्त कोटि-ब्रह्माण्ड स्वरूप इस संसार में एक एक ब्रह्मांड में अनन्तानन्त जीव हैं। ब्रह्माण्ड की अनेकता और अनन्तता अब वैज्ञानिक भी स्वीकृत कर चुके हैं। चन्द्र, शुक्र और सूर्य लोक तथा पृथ्वी का ओर छोर लेने के लिये अंतरिक्ष की उड़ान करने वाले वैज्ञानिकों ने अपना यह स्पष्ट मत अभिव्यक्त कर दिया है कि इस दुनिया जैसी ऐसी ही बहुत सी दुनियाएँ विश्व में संभव है। यही हमारे ब्रह्माण्डों को अनन्त कहने का तात्पर्य है। 

अनन्तानन्त ब्रह्माण्डों में एक-एक ब्रह्माण्ड में अनन्तानन्त जीव रहते हैं, जिनका ज्ञान संसार के किसी एक को तो क्या, सभी वैज्ञानिकों को नहीं हो सकता। मनुष्यों को, पशुओं की और किसी अंश में पक्षियों की गणना की जा सकती है, किंतु कीट, पतङ्ग आदि योनियों में कितने जीव इस संसार में भटक रहे हैं, इसका पता क्या सारे संसार के वैज्ञानिक 'राउण्ड टेबल कॉन्फ्रेंस' करके या जीवन भर खोजबीन करके लगा सकते हैं? 

बरसात की एक रात्रि में एक नगर के एक मोहल्ले की एक सड़क के एक बिजली के बल्ब के नीचे कितने हजार जीव एक ही रात्रि में पैदा होकर सबेरा होते-होते समाप्त हो जाते हैं। इन जीवों को गणना, भिन्न-भिन्न जातियाँ, खान-पान और इनके प्रकार जानना क्या आजकल के पहुंचे हुए वैज्ञानिकों के लिये भी संभव है? 

किंतु यह सब कार्य ऐसा नियमित और व्यवस्थित होता है कि जिसके आधार पर एक किसी परम समर्थ सर्वज्ञ नियामक या व्यवस्थापक को कल्पना न चाहते हुए भी करनी पड़ती है; अन्यथा किस व्यक्ति ने उन सब जीवों को एक नियमित समय से उत्पन्न किया, नियमित जीवन प्रदान किया और नियमित मृत्यु अथवा कराल काल के गाल में सन्निविष्ट कर दिया यह प्रश्न सारे संसार के बुद्धिमानों के सामने खड़ा ही रहता है।

ईश्वर को मान लेने पर इसका सीधा समाधान हो जाता है। अनन्तानन्त ब्रह्माण्डों के एक-एक ब्रह्माण्ड में अनन्तानन्त जीव हैं। अनन्तानन्त जीवों में एक-एक जीव के अनन्तानन्त जन्म हैं। एक-एक जीव के अनन्तानन्त जन्मों में एक-एक जन्म के अनन्तानन्त कर्म हैं। 

अनन्तानन्त कर्मों में एक-एक कर्म के अनन्त फल हैं और अनेक कर्मों के एक-एक फल भी हैं। इनसे ही जन्म, संस्कार और फल बनते हैं। ऊपर लिखे गये विवरण से जीवों के प्राग्जन्म, पुनर्जन्म और बारंबार जन्म न मानने वाले व्यक्ति से यह पूछा जा सकता है कि मनुष्य का बालक छ महीने में प्रयत्न करने पर बैठना सीखता है, पर गाय, भैंस, गधे, घोड़े का बच्चा पैदा होने के कुछ क्षण पश्चात् ही केवल चलने ही नहीं लगता, अपितु उछलने- कूदने, फाँदने और भागने लगता है। 

पुनर्जन्म न मानने वाले से हम पूछते हैं कि इन पशुओं के इन बच्चों को यह ट्रेनिंग किसने दी? इसके लिये कहाँ "ट्रेनिग सेण्टर या इन्स्टीट्यूशन' खुले हुए हैं? पक्षियों के बच्चों को उड़ना किसने सिखाया? हंस को नीर-क्षीर- विवेक की शिक्षा किसने दी? काग के शावक को उत्तमोत्तम भक्ष्य, भोज्य, लेहा पदार्थ का परित्याग कर अति वीभत्स और जघन्य विष्ठा की ओर ही आकृष्ट होने की तत्परता किसने सिखाया? 

सद्योजात सिंह शावक को हिरण पर आक्रमण करने का उपदेश किसने दिया ? इन सबके उत्तर में भी प्रकृति, स्वभाव, नेचर कहकर लोग संतोष भले ही कर लें, किंतु यह इन प्रश्नों का सत्य समाधान नहीं, जब कि पुनर्जन्म, प्राग्जन्म और एक- एक जीव के बारंबार अनेक जन्म मानने पर इस समस्या का संतोषजनक समाधान सहज और सुलभ हो जाता है। 

यह स्पष्ट है कि गाय, भैंस, गधे या घोडे का बच्चा केवल वर्तमान जन्म में ही गाय, भैंस, गधे, घोड़े का शरीर पाकर नहीं आया, किंतु पुनर्जन्म के सिद्धान्तानुसार वह पहले भी अनेक बार ऐसे जन्म पा चुका है और उन जन्मों में जन्मते ही उछलने-कूदने, भागने का अभ्यास उसका बना हुआ है। उसी अभ्यास के कारण वर्तमान जन्म में भी पूर्व संस्कारों के उद्बोध से बिना किसी के सिखाये वह यह सब करने लगता है।

पूर्वजन्म के संस्कार मन में रहते हैं। उन संस्कारों का उद्बोधन करने वाला देश, काल, अवस्था, परिस्थिति आदि कोई भी पदार्थ जैसे ही सामने आता है, संस्कार उद्धृत हो जाते हैं और प्राणी को पूर्वजन्म के अभ्यास से उस कार्य में प्रवृत्त कर देते हैं। 

यही कारण है कि पक्षी का बच्चा बिना शिक्षा या उपदेश के ही उड़ने लगता है। हंस नीर-क्षीर-विवेक कर लेता है और सिंह शावक हिरण को दबोच बैठता है। कहा जा सकता है कि एक मन में इतने संस्कार कैसे और कहाँ से आ सकते हैं? इसका उत्तर यह है कि जैसे घी, तेल, अचार अथवा ऐसी ही कोई अन्य वस्तु जिस मिट्टी के पात्र में कुछ दिन रखी जाए, उस मिट्टी के पात्र को तेल, घी आदि निकालकर, सोडा, मिट्टी, गरम पानी आदि स्नेह-निवारक द्रव्यों से रगड़-रगड़कर खूब अच्छी तरह धो लेने पर भी क्या उस पात्र में से चिकनाहट के संस्कार मिट सकते हैं? 

कहना न होगा कि धोने के बाद तत्काल उसमें चिकनाहट भले ही दिखायी न दे, पर ज्यों ही उस पात्र को धूप अथवा अग्नि का संयोग प्राप्त होगा, चिकनाहट उससे बाहर आ जाएगी। यहां चिकनाहट के संस्कार पात्र में छिपे हुए थे, अग्नि अथवा अपने संस्कारों को उद्बुद्ध कर दिया। 

ठीक इसी प्रकार अनेक बार पशु, पक्षी, कीट, पतङ्ग, देवता, दानव, मानव, आदि योनियों में जन्म लेने के कारण उन सब के कामों के संस्कार प्रत्येक प्राणी के मन में विद्यमान हैं, किंतु छिपे हुए रहते हैं। जैसे ही धूप या अग्नि की तरह उन संस्कारों का उद्बोधक पशु-पक्षी आदि का जन्म मिला कि संस्कार उद्बुद्ध होकर, उस प्राणी को उठने-बैठने, दौड़ने- भागने, उड़ने, मारने-काटने आदि में प्रवृत्त कर देते हैं। 

अतः एक-एक जीव के अनन्तानन्त | जन्म मानने से ही इन प्रश्नों का समाधान होता है।

स्वामी निरंजन देव तीर्थ


 

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