Published By:धर्म पुराण डेस्क

भारतीय संस्कृति की विशेषता क्या है….

भारतीय संस्कृति की विशेषता क्या है….

भारतीय संस्कृति क्या है, संस्कृति क्या है, भारतीय संस्कृति की विशेषता क्या है, संस्कृति का अर्थ क्या है, भारत खंड क्या है, सनातन धर्म क्या है, सनातन संस्कृति क्या है, हिंदू न्याय क्या है| 

श्री शिवचरण जी

आधुनिक लोगों की भाषा में 'संस्कृति', 'सभ्यता' आदि शब्दों का बहुत प्रयोग होता है। वास्तव में उन शब्दों का यह नवीन प्रयोग 'धर्म', 'ज्ञान' आदि प्राचीन शब्दों के स्थान पर होता है; परंतु यह उचित नहीं है। यदि नवशिक्षित लोग शब्दों का ठीक अर्थ जानते होते तो इन शब्दों का ऐसा दुरुपयोग नहीं करते।

वर्तमान पश्चिमियों से या उनके अनुयायियों से यदि पूछा जाता है कि 'संस्कृति क्या वस्तु है ?' तो वे प्रश्न के अर्थ पर विचार न करके तुरंत पश्चिमी सभ्यता की प्रशंसा करने लगते हैं; परंतु यदि पुराने ढंग के पंडितों के सामने यही प्रश्न रखा जाए तो वे निःसंदेह 'संस्कृति' शब्द का अर्थ बतलाने लगेंगे, संस्कृति का हर एक अवयव अलग करते हुए| 

'संस्कृति वास्तव में क्या वस्तु है', इस पर विचार करने का प्रयत्न करेंगे जिससे विदित होगा कि संस्कृति के कई अंग हैं। कुछ अंग स संस्कृतियों में सामान्य रूप से मिलते हैं और कुछ अंग भिन्न-भिन्न संस्कृतियों में अलग-अलग मिलते हैं।

इस एक प्रश्न के उत्तर से स्पष्ट होगा कि पश्चिमी एवं भारतीय विद्वानों की दृष्टि में कितना अन्तर है। तात्त्विक दर्शन भारतीय संस्कृति के अनुपम मणि हैं। वर्तमान पाश्चात्य दर्शन न्याय एवं वैशेषिक का अंश माना जा सकता है; परंतु उन दर्शकों का पूर्ण ध्यान रखते हुए भी भारतीय दार्शनिक अपने योग, वेदान्त, सांख्य आदि के साधनों से उनकी त्रुटियों को पूरा कर सकते हैं| 

हर-एक युग में हर-एक देश में मनुष्य किसी भी रूप में विद्या की खोज में लगा रहता है। कभी एक देश में विद्या या समाज का स्वरूप पड़ी उन्नति तक पहुँचता है।

परंतु उन्नत अवस्था पर ठहरने के लिये यह आवश्यक है कि संस्कृति के अन्य अंश भी उन्नत अवस्था प्राप्त करें। यदि कोई एक अंश उन्नत है और दूसरे अविकसित हैं, तो संस्कृति का नाश अनिवार्य है। 

इसलिए यह दिखायी पड़ता है कि अनेक देशों कितनी ही सभ्यताएँ फूलीं-फलीं और नष्ट हो गयी। भारतीय सभ्यता एक ही है, जो अनादि समय से चली आ रही है और नि:संदेह आगे भी चलती रहेगी।

भारतीय दर्शन के अनुसार संस्कृति के पाँच अवयव हैं; वे हैं— धर्म, दर्शन, इतिहास, वर्ण तथा रीति-रिवाज। 'संस्कृति' शब्द का यह अर्थ लगाते हुए यदि वर्तमान पश्चिमी संस्कृति का परीक्षण किया जाय तो विदित होगा कि उसमें इतनी त्रुटियां हैं कि उसे संस्कृति कहने में भी संदेह होगा।

'संस्कृति' शब्द का लक्ष्यार्थ धर्म, विद्या आदि की उन्नति है; परंतु वाक्यार्थ संस्कृत - शुद्ध करने की क्रिया है। प्राकृत वस्तु जिस रूप में साधारणता से प्राप्य है, उसे संस्कृत नहीं कहा जा सकता। किसी स्थूल धातु से सूक्ष्म शुद्ध तत्व निकालने की क्रिया का नाम संस्कृति है। 

एक हरी मिट्टी को संस्कृत करने से भास्वत् ताम्र मिल जाता है। वैसे ही मनुष्य-जाति के स्थूल धातु से संस्कृति द्वारा उत्तम मानसिक एवं सामाजिक गुण प्रादुर्भूत होते हैं

संस्कृति की उत्पत्ति के विषय में कुछ मतभेद है। इस बात पर इतिहासकारों को वाद-प्रतिवाद करने का अच्छा अवसर मिलता है। फिर भी संस्कृति का रूप और मूल्य इसकी उत्पत्ति के प्रश्न से अलग बात है।

कुछ लोगों का कहना है कि ताम्र आरम्भ में शुद्ध रूप में उत्पन्न हुआ धीरे-धीरे अशुद्ध होकर हरी मिट्टी बना, जिसे फिर संस्कृत करने पर ताम्र पुनः अपने शुद्ध स्वरूप को प्राप्त हो गया। 

दूसरे लोग कहते हैं कि संसार में शुद्ध ताम्र कहीं नहीं दिखायी पड़ता, उसका प्राकृतिक रूप हरी मिट्टी ही है। उस मिट्टी को संस्कृत करने प्रकृति की ओट में छिपा हुआ शुद्ध ताम्र-तत्व निकाला जा सकता है। प्रायः दोनों दृष्टियाँ अपने प्रमाण के उपाय की सीमाओं में सच कही जा सकती। हैं। 

इसी तरह कहा जा सकता है कि पुरुष आरम्भ में देवता के समान था। फिर भी जहाँ तक हम लोगों का प्रत्यक्ष अनुभव हो सकता हैं, हम देखते हैं कि मनुष्य-जाति के मूढ़ स्थूल समूह से भी संस्कृति द्वारा शुद्ध संस्कृत भाषा एवं विद्वान् संस्कृत पुरुष बनते हैं।

मनुष्य-जाति का इतिहास समझने के लिये भारतखण्ड एक ही देश है; क्योंकि भारतीय संस्कृति को छोड़कर कोई भी ऐसी दूसरी संस्कृति नहीं है, जो मनुष्य की उत्पत्ति के समय से आज तक अखंड धारा से चलती आयी हो। 

सब धर्मो का आधार सनातनधर्म-भारतीय-धर्म ही है। धर्म अनुसार समाज के स्वरूप की रक्षा केवल भारत में हुई है। इससे स्पष्ट होता है कि भारतीय संस्कृति में ऐसे गुण होना अनिवार्य है, जिससे संस्कृति की रक्षा होती है।

आधुनिक पश्चिमी देशों में लोगों को एक विचित्र अभिमान हो गया। वे कहने लगे कि 'हम लोगों ने वैज्ञानिक आविष्कारों से एक नया युग पैदा कर दिया है। परंतु इन नये आविष्कारों का फल थोड़ा-सा भी अन्वेषण करने से स्पष्ट होता है कि मनुष्य इस नये विज्ञान से अद्भुत यंत्रों के मालिक न रहकर निर्दयी निर्विचार भयंकर यन्त्र रूप राक्षस के गुलाम बन गये हैं। 

किसी को पता नहीं कि वह राक्षस मनुष्य-जाति को कहाँ ले जा रहा है। बड़े-से-बड़े यन्त्रों के चलाने के लिये अनेक देशों के शासकों को सारी प्रजा से काम लेना पड़ता है। इस कारण से किसी के लिये स्वतंत्रता नहीं रह सकती। लोगों को इस अप्रिय काम में लगाए रखने के लिये उनकी विचार शक्ति का नाश करना पड़ता है। 

आजकल कई देशों में एक नयी चिकित्सा का प्रयोग चला है, जिसके द्वारा मनुष्य के मस्तिष्क का एक छोटा अंश निकालकर असाधारण विचार करने की शक्ति नष्ट कर दी जाती है। 

यदि किसी व्यक्ति को ऐसा विचार होने लगता है, जिसमें दूसरे खतरा देखते हैं, तब छोटी-सी शल्य-क्रिया से उसको अनुकूल बना लेते हैं। ऐसी सम्भावना अवश्य ही स्वतन्त्रता एवं उन्नतिकी द्योतक नहीं है। इस नये यंत्र राज्य में स्वतंत्रता, धर्म, विद्या आदि का सत्यानाश अनिवार्य है। कुछ लोगों का कहना है कि 'भारत वर्तमान उन्नति से वाचत रहा। 

जगली जातियाका तरह उन्नति के मार्ग पर चलना नहीं सीखा। इसलिए भारतीयों को चाहिये कि अपने पुराने विचार एवं रहने-खाने के ढंग आदि को छोड़कर नवीन युग की रीति से रहने लगे।' परंतु ऐसा कहने वाले लोग प्राचीन संस्कृति से अपरिचित हैं। 

यदि वे लोग प्राचीन एवं अर्वाचीन दोनों संस्कृतियों के गुणों की तुलना कर सकते तो कभी ऐसा विचार नहीं करते। यह प्रश्न अनुचित न होगा कि 'यदि प्राचीन संस्कृति वस्तुतः निर्मूल्य है तो अपने-आप मर ही जाएगी। फिर उसका मूल्य छिपाने, उसका प्रचार रोकने के लिये क्यों इतना प्रयत्न हो रहा है?' 

इसका उत्तर यह है कि यदि किसी को भारतीय सनातन विद्या के छोटे-से-छोटे अंश का लेशमात्र भी दर्शन करने का सौभाग्य मिलता तो वह कभी भी दूसरी विद्या, दूसरी संस्कृति को नहीं मानता।

संसार में कोई ऐसी विद्या नहीं है, जिसकी प्राचीन हिंदुओं के विचारों से तुलना की जा सके। हिंदू-दर्शन से परिचित किसी भी विद्वान को वर्तमान पश्चिमी दर्शन के गुणगान करने का साहस नहीं हो सकता।

संस्कृत व्याकरण की पूर्णता के सामने अन्य भाषाओं की रचना विधि अनुपपन्न एवं असमाप्त दिखायी पड़ती है। और अन्य समाजों का रूप हिंदू समाज के सामने पशुओं के समाज-जैसा विदित होता है।

हर-एक पुरुषार्थ, हर-एक उन्नति का साधन अन्य देशों से अत्यंत उत्तम रूप में भारत की पवित्र भूमि पर प्राप्य है। मानसिक प्रवृद्धि के साधनों से जीवन एक सुन्दर एवं मनोरंजक यात्रा बनता है- न कि रेल, वायुयान, रेडियो, कार आदि साधनों से।

जीवन को सफल एवं शोभायमान करने वाले उपायों का खजाना भारतवर्ष ही है। इस पुण्य देश की विद्या-मणियों को कौन गिन सकता है। मुझसे पूछा जाए कि 'यदि यह सच है कि इतनी अनुपम वस्तुएं भारत में मिलती हैं तो नमूने के लिये कम-से-कम एक ऐसी वस्तु का नाम बताओ, जो यहां मिलती है और अन्य देशों में नहीं।' 

तब मैं एक बात बतलाऊँगा, एक ऐसे गुण से पूर्ण वस्तु का नाम लूँगा, अन्य सभी गुण जिसके अन्तर्गत हैं। भारत ही एक ऐसा शुभ देश है, जहां सत्संग का अनुपम लाभ मिल सकता है, यह एक ही धन्य देश है, जहां साधु लोग रहते हैं


 

धर्म जगत

SEE MORE...........