दसविध स्नान की परंपरा क्या है?
भारतीय कर्म काण्ड ग्रंथों में हर अध्याय में वैज्ञानिक उपचार समाये हुए हैं। मीमांसाकारों के स्वकीय दुर्लभतम वैज्ञानिक अन्वेषणों से प्राप्त परिणामों व प्राकृतिक रूप से प्रचुर मात्रा में उपलब्ध पदार्थों की उपयोगिता को जानकर, उन दुर्लभ वस्तुओं व पदार्थों को दैनिक जीवन में जिस प्रकार समायोजित किया है, वह स्तुति योग्य है। हम उनके इस उपकार का ऋण कभी भी नहीं चुका सकते। केवल मात्र एक मार्ग ही उन्होंने स्वयं बता दिया कि 'इन विद्याओं के रहस्यों को जानकर, अधिक से अधिक जन सेवा करें और इन विद्याओं का प्रचार-प्रसार करते हुए इन्हें सदा जीवंत बनाये रखें।'
धर्मशास्त्र में पूजा-अर्चना खंड में साधारण से लगने वाले ऐसे पदार्थों का प्रयोग किया जाना आवश्यक बतलाया जिनके दर्शन, स्पर्श या भोग से शारीरिक और मानसिक शुद्धि व पुष्टि होती है। चाहे पंचामृत हो, पंचगव्य, सर्वौषधि, यज्ञ भस्म या मधुपर्क आदि अन्यान्य पदार्थ हैं जो दिव्य औषधीय गुणों से परिपूर्ण हैं |
दशविध स्नान की बात करते हैं चूंकि यह शारीरिक स्वास्थ्य और शुद्धि का प्रमुख आधार है। जब किसी यज्ञ का आयोजन या मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा अथवा अन्य कोई वृहत् मांगलिक उत्सव या उपनयन संस्कार आदि अवसर हो तो दशविध स्नान की विधि प्रयोग में ली जाती है।
दशविध स्नान में कई प्रकार की सामग्रियां प्रयोग में ली जाती हैं। दैहिक शुद्धि इस स्नान का प्रमुख उद्देश्य है। शुद्ध देह में ईश्वर निवास करते हैं और प्रसन्न भी रहते हैं। मांगलिक कार्यों में यजमान (मुख्य कार्यकर्ता) को ईश्वर का अंश माना जाता है। यहाँ वेद, पुराण और संहिताएं सभी एकमत हैं इसलिए यजमान मनसा-वाचा और कर्मणा शुद्ध होना चाहिये। इसी प्रक्रम में देहशुद्धि सर्वप्रथम और अनिवार्य है।
कोई भी व्यक्ति ईश्वरमय होकर ईश्वर की अर्चना करता है तो पूजा सफल होती है। दैहिक शुद्धि के लिए सामान्य स्नान के अतिरिक्त दशविध स्नान की जो विधि है, वह इस प्रकार है, इस स्नान से पूर्व हेमादि संकल्प (जो जन्म-जन्मांतरों के पापों के प्रायश्चित्त के लिए किया जाता है।) करना आवश्यक है। तत्पश्चात विद्वान आचार्य या गुरु अथवा दोनों की उपस्थिति में अविवाहित हों तो अकेले और विवाहित हों तो सपत्नीक स्नान करना चाहिये(लौकिक मर्यादा की दृष्टि से स्त्रियोचित पर्दे की व्यवस्था अवश्य होनी चाहिये) ।
1. दशविध स्नान: भस्म स्नान इसमें यज्ञ भस्म को जल में मिलाकर शरीर पर लेप किया जाता है। मे दह्यतां पापं कुरु भस्म शुचे शुचिम्।
महत्व हे भस्म, तृण और काष्ठ के समस्त अवगुणों को अग्नि द्वारा जलाकर, उसका शुद्ध रूप तुम हो। मेरे शरीर की समस्त पाप राशि को भी उसी प्रकार जलाकर मुझे शुद्ध बनाओ। ऐसी भावना रखकर लेप करें और फिर शुद्ध जल डालें।
2. मृत्तिका स्नान: इस विधि में गौशाला, तीर्थ स्थान, गुरु आश्रम, पीपल की जड़ आदि पवित्र स्थानों की मृत्तिका (मिट्टी) ही प्रयोग में ली जाती है और उसका शरीर पर लेप किया जाता है। लेप करते समय यह भावना रखें।
मृत्तिके देहि मे पुष्टिं त्वयि सर्व प्रतिष्ठितम्।
हे मृत्तिके! आप एक छोटे से बीज को भी पुष्टता देकर वृक्ष में परिणत करती हो। मेरी देह में स्थित सूक्ष्मतर शुद्ध तत्व को पुष्टता देकर शरीर को पुष्ट करो।
3. गोमय स्नान: स्वस्थ गाय के गोबर का रस एवं गोमूत्र मिलाकर शरीर पर लेप करें और यह भावना रखें।
यन्मे रोगं च शोकं च तन्मे दहतु गोमय। हे गोमय! आप में लक्ष्मी का वास है, परम मांगलिक हो, औषधीय गुणों से संपन्न हो, मेरे शरीर से रोग और शोक का शीघ्र निवारण करो।
4.पंचगव्य स्नान: सर्वार्थ सिद्धि योग वाले दिन, ताँबा या पलाश (छीला) वृक्ष के पत्तों के पात्र में, लाल गाय का प्रातः काल में प्राप्त गोमूत्र, गोमूत्र से दुगना सफेद गाय का गोबर, ॐ बोलते हुए गोमूत्र में मिलाएं, गोमूत्र से डेढ़ गुना पीली गाय का दूध और गोमूत्र से सवाया सफेद (नीलिमा युक्त) गाय का दही ये सभी पदार्थ एक पात्र में एकत्रित करें तथा कुशा के अग्रभाग से मिश्रित करें। इस प्रकार पंचगव्य बन जाता है। पंचगव्य को शरीर पर लेप करते हुए यह भावना रखें। सर्वपाप विशुद्धयर्थं पंचगव्यं पुनातु माम्।
पंचगव्य, पंचतत्व प्रधान पंच पदार्थों से निर्मित है। इसके लेप से मेरे सभी पाप नष्ट हो जायें, अथवा उनकी शुद्धि हो जाये। वे शुभ कर्म में परिणत हो जायें।
5. गोरज स्नान: स्वस्थ गाय के पैरों के नीचे की मिट्टी को है और अग्राम अनेकता की ओर गोरज कहते हैं। इसका लेप करके स्नान किया जाता है। स्नान का महत्व यह है कि- शिरसा तेन संलेपे महापातक नाशनम् ।
गाय के चलने से जमीन पर पड़ी रेत भी आकाश छूने लगती है। इसी प्रकार गो चरण से पवित्र रज का मैं सिर पर लेप करता हूँ। मेरे महा पातक का भी नाश हो।
6. धान्य स्नान: सात प्रकार के जो मुख्य धान्य होते हैं उनको एक रात पूर्व ही जल में भिगो दिया जाता है और स्नान के समय उस धान्य जल को प्रयोग में लिया जाता है। इसका महत्व यह है- तेन स्नानेन देवेश मम पापं व्यपोहतु। धान्य परम औषधि है, जो प्राणी मात्र को जीवित रखती है और मानव के जीवन का आधार है। इस औषधि से स्नान करने पर क्षुधा और तृषा संबंधी रोगों का एवं पापों का नाश हो।
7. फल स्नान: अलग-अलग प्रकार के फलों को एक रात पूर्व ही जल में डाल दिया जाता है और प्रातःकाल उस जल का प्रयोग स्नान के लिए किया जाता है। तेन स्नानेन मे देव फललब्धमनंतकम्।
महत्व कोई भी फल वृक्ष के समस्त औषधीय तत्वों व रसों का अधिष्ठाता होता है। फलोदक के स्नान से हमें अक्षय पुण्य फल प्राप्त होवें।
8. सर्वौषधि स्नान: विविध प्रकार की औषधियों के मिश्रण को सर्वौषधि कहते हैं। सर्वौषधि चूर्ण का लेप करके स्नान किया जाता है। इसका महत्व यह है सर्वोषधय पुनन्तु माम् ।
हे औषधि! समस्त औषधीय गुण संपन्न वृक्षों के पत्र, पुष्प, फल, लता आदि से निर्मित हो मेरे शरीर को निरोगी बनाए।
9. कुशोदक स्नान कुशा को एक रात पूर्व जल में भिगो दिया जाता है और स्नान के समय इस जल का प्रयोग किया जाता है। कुशोदक स्नान का महत्व यह है, कुशमूले स्थितो ब्रह्मा कुशमध्ये जनार्दनः। कराग्रे शंकर देवस्थान नश्यन्तु पातकम् ।।
कुशा के मूल में ब्रह्मा, मध्य में विष्णु और अग्रभाग में में शिव का वास होता है। ये तीनों देव मेरे सभी पाप व अपराधों का शमन करें।
10. हिरण्य स्नान : सुवर्ण धातु को जल में डालकर रखने से जल हिरण्यमय हो जाता है और इसी जल को स्नान में प्रयुक्त किया जाता है। हिरण्य स्नान का महत्व - अनंत पुण्य फलतः शांतिं प्रयच्छमे।
हिरण्यमय पिण्ड से ही परम शक्तिमान व शक्तिमान परमेश्वर उत्पन्न हुए हैं। हिरण्यमय जल के स्नान से मुझे भी शक्ति और शांति की प्राप्ति हो।
इतनी शक्तियों व गुणों से संपन्न होने पर ही कोई व्यक्ति सामान्य से विशिष्ट हो जाता है। यह तो केवल मात्र एक ही विधान है इसमें निहित रहस्यों से परिचित होने पर ही ऐसा लग रहा है कि ये कितने आवश्यक हैं। भारतीय सनातन संस्कृति के मूल स्वरूप की और हम अग्रसर होवें, उसे अपनाएं, उसके महत्व को एवं इन विधियों व सामग्रियों में निहित गुण गांभीर्य को समझें और समझाएं।
बहुत सारे ऐसे रोग जो देखने में छोटे हैं परंतु असावधानी में मृत्युदायक भी हैं, उनकी क्या मजाल कि वे ऐसे व्यक्ति पर हमला करें जो इन वैदिक कर्मकाण्ड की विधियों को अर्थपरक रूप से अपना रहा हो। पुनर्जागरण का यह अभियान युवा पीढ़ी को आगे बढ़ाना चाहिए और धर्म शास्त्रों को सम्मान देते हुए वैदिक भारतीय संस्कृति की रक्षा और उसके उत्थान में सतत प्रयत्नशील रहना चाहिए। हम सुधरेंगे, जग सुधरेगा। हम बदलेंगे, जग बदलेगा।
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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