किसी समय कश्मीर में एक सम्मेलन हुआ था। कश्मीर के उस सम्मेलन में एक वक्ता ने कहा : "जब तक मन पवित्र नहीं हुआ, तब तक 'राम-राम' करने से क्या फायदा ? पहले अपने दिल को पावन करो, मन को पवित्र करो, फिर 'राम-राम' कहो।" इस प्रकार का भाषण देकर वह बैठ गया। फिर किसी संत की बारी आयी।
संत बोले : "अभी-अभी एक सज्जन भाषण करके गए। उनका मंतव्य है कि जब तक मन पवित्र नहीं हुआ, तब तक 'राम-राम' करने से क्या फायदा ? पहले मन को पवित्र करो फिर 'राम-राम' कहो। ...तो मैं पूछता हूँ कि मन कौन-से सोडा पाउडर या साबुन से पवित्र होगा? किसी लॉन्ड्री से या किसी धोबी की दुकान से मन पवित्र होगा? या कि डंडा मारने से मन पवित्र होगा?
अरे भाई ! मन पवित्र है तो भी 'राम-राम' जपो और मन पवित्र नहीं है, तब भी 'राम-राम' जपो जैसे जिह्वा में सूखा रोग हो जाता है तो मिश्री फीकी लगती है, परंतु उस रोग को मिटाने का उपाय भी यही है कि मिश्री चूसते जाओ तो जिह्वा का सूखा रोग मिट जायेगा और मिश्री की मिठास भी आने लगेगी। दोनों काम हो जायेंगे।
ऐसे ही हृदय सूखा है तो भी 'राम-नाम' लो जिससे सूखापन मिटते ही 'राम-नाम' के रस का अनुभव हो जायेगा। फिर तो रामरस से इतने रसमय हो जाओगे कि बस ! बाहर के विषय-विकारों का रस फीका लगने लगेगा।
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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