Published By:धर्म पुराण डेस्क

हम जीवन में छोटी-छोटी चीजों और कामनाओं के पीछे भागते रहते हैं। यह सब चीजें मिल भी जाए तो परम आनंद नहीं मिलता। एक चीज मिलती है दूसरी चीज हासिल करने की लालसा जागृत होती है।
ऐसे में लालसा में बढ़ती जाती हैं कामनाएं बढ़ती जाती है। लेकिन संतुष्टि नहीं होती संतुष्टि कैसे होगी यह विचार करते करते व्यक्ति थक जाता है लेकिन एक दिन उसके हाथ में एक सूत्र आ जाता है और यही सूत्र उसका जीवन बदल देता है।
श्रद्धेय स्वामी श्री हरि बाबा जी महाराज कहते हैं ..
हाय ! हाय! इस छोटे से कृष्ण नाम में इतनी माधुरी किसने उड़ेल दी। 'कृष्ण नाम जब ते श्रवन सुन्यो री माई, भूली री भवन 'हाँ तो बावरी भई री।' किस देव ने किन-किन सुधाओं के सम्भार से इसका सृजन किया है, 'नो जाने रचिता कियद्भिरमृतैः कृष्णेति वर्णद्वयी।'
एक मन्त्र है- 'अतप्ततनुर्न तदामो अश्नुते दिवम्।' शंख- चक्रादिसे अनङ्कित तनु जीव कच्चा होने के कारण उस प्रभु के दिव्य मङ्गलमय श्रीविग्रह के दर्शन नहीं कर सकता। कुछ सम्प्रदाय के लोग इसका ऐसा अर्थ करते हैं; किंतु कोई रसिक महानुभाव ऐसा भी अर्थ करते हैं कि जब तक विरह ताप से जीव का तनु संतप्त नहीं होता, तब तक वह उन प्रभु के दिव्य दर्शन से वञ्चित ही रहता है; क्योंकि अभी वह कच्चा है।
अब विचार करें - जीव में यह कचाई क्या है ? दाल- चावल को आग पर चढ़ाते हैं तो जब तक वे नहीं पकते, उछलते रहते हैं। पकने पर- सिद्ध होने पर स्थिर एवं रसीले बन जाते हैं। ऐसे ही जीव की भी मन इन्द्रियाँ वासनाओं के कारण उछल- कूद, दौड़-धूप मचाती रहती हैं, क्षणभर भी स्थिर नहीं रहतीं।
स्वप्न में भी चैन नहीं। जैसे वानर की चञ्चलता सुरापान, वृश्चिकदंशन, या भूतावेश से चरम काष्ठा को पार कर जाती है, वैसी ही दशा जीव की भी है; किंतु जब प्रभु कृपा एवं संतकृपा से वह नाम का आश्रय लेता है तो उसके प्रभाव से धीरे-धीरे चित्त में मधुरता आने लगती है। फिर जैसे-जैसे वह बढ़ती है वैसे- वैसे ही सोचता है कि हाय! जिसका नाम ही इतना मधुर है वह स्वयं कितना मधुर, कितना सुन्दर, कितना मोहक होगा ?
बस, फिर तो उसके लिये आँखें ललचाने लगती हैं। दर्शन अभी नहीं होते। क्या करें! हृदय में विरह की आग सुलगने लगी, वह बढ़ने लगी। अब तो उसने वासनाओं के कूड़े को जलाकर भस्म कर दिया। जहाँ राम की तीव्र लालसा जगी वहाँ काम का क्या काम? जहाँ दिव्यरस का अनुभव हो गया वहाँ विषय का अति तुच्छ रसाभास कैसे रहेगा?
नीरस हृदय में ही वासनाओं का जमाव जमता है। अतः जीव के हृदय में इष्टातिरिक्त वासनाओं का पुञ्ज ही कचाई है, उसे नाम ही विरहनि जलाकर मिटाता है। अच्छा हरिनाम! ऐसा विलक्षण आपका चमत्कार है? ठीक है, 'न आमो येन' जिससे जीव कच्चा न रहे, वही तो 'नाम' है।
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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