 Published By:धर्म पुराण डेस्क
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हम सबको किसी न किसी जन्म में अखंड अविनाशी सुख की आकांक्षा होती है। सुख और दुख के चक्र से जब मानव परेशान हो जाता है तब उसे इस संसार चक्र से पार जाने की इच्छा जागृत होती है।
गीता जी में श्री कृष्ण कहते हैं-
स्वरूप का अनुभव होने पर ध्यान योग को उस अविनाशी, अखंड सुख की अनुभूति हो जाती है, जो 'आत्यन्तिक' अर्थात सात्विक सुख से विलक्षण, 'अतीन्द्रिय' अर्थात राजस सुख से विलक्षण और 'बुद्धि ग्राह्य' अर्थात तमस सुख से विलक्षण है।
अविनाशी सुख को 'बुद्धि ग्राह्य' कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि वह बुद्धि की पकड़ में आने वाला है। कारण कि बुद्धि तो प्रकृति का कार्य है, फिर वह प्रकृति से अतीत सुख को कैसे पकड़ सकती है? इसलिये अविनाशी सुख को बुद्धि ग्राह्य कहने का तात्पर्य उस सुख को तमस सुख से विलक्षण बताने में ही है।
निद्रा, आलस्य और प्रमाद से उत्पन्न होने वाला सुख तमस होता है। गाढ़ निद्रा (सुषुप्ति) में बुद्धि अविद्या में लीन हो जाती है और आलस्य तथा प्रमाद में बुद्धि पूरी तरह जागृत नहीं रहती ।
परन्तु स्वतःसिद्ध अविनाशी सुख में बुद्धि अविद्या में लीन नहीं होती, प्रत्युत पूरी तरह जागृत रहती है- 'ज्ञानदीपिते' अतः बुद्धि की जागृति की दृष्टि से ही उसको 'बुद्धि ग्राह्य' कहा गया है। वास्तव में बुद्धि वहाँ तक पहुँचती ही नहीं ।
जैसे दर्पण में सूर्य नहीं आता, प्रत्युत सूर्य का बिम्ब आता है, ऐसे ही बुद्धि में वह अविनाशी सुख नहीं आता, प्रत्युत उस सुख का बिम्ब आभास आता है, इसलिये भी उसको 'बुद्धि ग्राह्य' कहा गया है।
तात्पर्य यह हुआ कि स्वयं का अखंड सुख सात्विक, राजस और तामस सुख से भी अत्यंत विलक्षण अर्थात् गुणातीत है। उसको बुद्धि ग्राह्य कहने पर भी वास्तव में वह बुद्धि से सर्वथा अतीत है।
बुद्धि युक्त (प्रकृति से मिला हुआ) चेतन ही बुद्धि ग्राह्य है, शुद्ध चेतन नहीं। वास्तव में स्वयं प्रकृति से मिल सकता ही नहीं, पर वह अपने को मिला हुआ मान लेता है—'ययेदं धार्यते जगत्'।
मनुष्य को जो सुख प्राप्त है, उससे अधिक सुख दिखता है तो वह उसके लोभ में आकर विचलित हो जाता है। जैसे, किसी को एक घंटे के सौ रुपये मिलते हैं। अगर उतने ही समय में दूसरी जगह हजार रुपये मिलते हैं, तो वह सौ रुपये की स्थिति से विचलित हो जाएगा और हजार रुपये की स्थिति में चला जाएगा।
निद्रा, आलस्य और प्रमाद का तमस सुख प्राप्त होने पर भी जब विषजन्य सुख ज्यादा अच्छा लगता है, उसमें अधिक सुख मालूम देता है, तब मनुष्य तमस सुख को छोड़कर विषजन्य सुख की तरफ लपककर चला जाता है।
ऐसे ही जब वह विषजन्य सुख से ऊँचा उठता है, तब वह सात्विक सुख के लिए विचलित हो जाता है और जब सात्विक सुख से भी ऊँचा उठता है, तब वह आत्यन्तिक सुख के लिए विचलित हो जाता है।
परन्तु जब आत्यन्तिक सुख प्राप्त हो जाता है, तो फिर वह उससे विचलित नहीं होता; क्योंकि आत्यन्तिक सुख से बढ़कर दूसरा कोई सुख, कोई लाभ है ही नहीं। आत्यन्तिक सुख में सुख की हद हो जाती है। ध्यान योगी को जब ऐसा सुख मिल जाता है, तो फिर वह इस सुख से विचलित हो ही कैसे सकता है?
'यस्मिन् स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते'
 
 
                                मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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