भारतीय धर्म दर्शन में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चार प्रकार के पुरुषार्थ बताए गए हैं। चौथा और अंतिम लक्ष्य मोक्ष है और इसी मोक्ष की प्राप्ति मानव का अंतिम लक्ष्य है ऐसा कहा गया है। धर्म शास्त्रों में मानव जन्म को धर्म अर्थ काम के रास्ते आगे बढ़ते हुए मोक्ष तक पहुंचने की यात्रा का कहा गया है। यह भी गया है कि मानव जीवन ही मोक्ष का रास्ता तय करने का माध्यम बनता है। चारों की यात्रा इस मानव रूपी देह से ही संभव है। ये भी पढ़ें.. उपनिषद क्या हैं? वेदांत और उपनिषद में क्या अंतर है? वेद और वेदांत में क्या डिफरेंस है? अतुल विनोद धर्म शास्त्र कहते हैं कि इस शरीर को प्राप्त कर लेने के बाद भी यदि हम अपनी मुक्ति के लिए प्रयास नहीं करते तो वह आत्महत्या है। यह हमारा दुर्भाग्य होगा कि हम अन्य भोगों में फंसकर विनाश के गर्त में चले जाएं। यहां ये बता देना ज़रूरी है कि जीवात्मा के रूप में आसमान 7 लोक(स्तर) हैं। हम उनमें से किसी एक लोक से आए हैं। हमें यह जीवन अपने लोक को अपग्रेड करने के लिए मिला है। यानी हम यदि चौथे स्तर के लोग से आए हैं तो हमें अपने इस जीवन के माध्यम से कम से कम तीसरे या दूसरे स्तर(लोक) में प्रमोट हो जाना चाहिए। ये लोक ग्रह नहीं हैं ये जीवात्मा के तरह इनके रहने के सूक्ष्म स्थान हैं। यदि हम ऐसा करने में असफल हो जाते हैं तो हम चौथे लोक से गिरकर पांचवें या छठवें निम्न स्तरीय लोक में पहुंच जाते हैं। इसलिए यदि हम अपना कल्याण चाहते हैं तो आत्मबोध के लिए हमेशा कोशिश करते रहें। आत्मज्ञान के तीन रास्ते बताए गए हैं श्रवण, मनन और निदिद्यासन। हमारे कर्म के अनुसार हमें लोक प्राप्त होते हैं। यह सभी लोक अनित्य हैं। यहां आप स्थाई रूप से नहीं रह सकते। यहां से धरती और धरती से यहां तक आना जाना लगा रहता है। यह 7 लोक ही स्वर्ग और नरक हैं। अनित्य कर्म से नित्य आत्म-तत्व की प्राप्ति नहीं हो सकती। आत्मज्ञान के लिए ब्रम्हनिष्ठ गुरु की शरण में जाने का वर्णन आता है। वेद के चार भाग बताए गये हैं। संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद। ये भी पढ़ें.. वेदांत की अंतिम स्थति: एक बोधकथा -दिनेश मालवीय संहिता में कर्म उपासना है जबकि उपनिषदों में सिर्फ ज्ञान की चर्चा है। ज्ञान वह विद्या है जो मोक्ष दिलाने में सहायक होती है। जिसके द्वारा अविनाशी पूर्ण-पर ब्रह्म का ज्ञान होता है उसे ही मोक्षदायिनी अध्यात्म विद्या, परा विद्या कहा जाता है। इस विद्या के जरिए व्यक्ति अपने अंदर मौजूद अनित्य संसारबोध को हटाते हुए मोक्ष की प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त करता है। जो विद्या ब्रह्म की प्राप्ति कराती है। संसार का नाश करती है उसी विद्या को उपनिषद विद्या कहा गया है। ब्रह्म को उपलब्ध कराने वाली और संसार का अवसान कराने वाली विद्या का नाम ही उपनिषद विद्या है। आत्म तत्व क्या है? आत्मा रहस्यों से भरी है लेकिन यह सबसे करीब भी है। माया के कारण यह दूर जान पड़ती है। जैसे ही माया का पर्दा हटता है आत्मा प्रत्यक्ष हो जाती है। इसीलिए उपनिषदों को वेदांत कहा गया है। क्योंकि जब आत्मा प्रत्यक्ष हो जाती है तब फिर कुछ भी शेष नहीं रह जाता। "सा विद्या या विमुक्तये" परब्रह्म सत्य स्वरूप, ज्ञान स्वरूप और अनंत है। जिसे हम हाथों से ग्रहण नहीं कर सकते, जिसका कोई रूप रंग नहीं है, जो आंख कान और हाथ पैर से रहित है। उस नित्य विभु, सर्वगत, अत्यंत सूक्ष्म, शून्य अशून्य, आकाश-परमाकाश के पार, तत्व-अतत्व के पार, अविनाशी परब्रह्म, जिसे मन से मनन नहीं किया जा सकता। ये भी पढ़ें.. शुक्ल यजुर्वेद के प्रणेता महर्षि याज्ञवल्क्य -दिनेश मालवीय जिसे जानने के लिए उसकी शक्ति ही समर्थ है। उसी ब्रह्म को जानना हमारा लक्ष्य है। उस ब्रह्म को जानने के लिए उस ब्रह्म की शक्ति को जागृत करना जरूरी है। मन की इतनी शक्ति नहीं कि वह उसे जान सके। इसलिए मन को उस ब्रह्म की शक्ति के अधीन करना जरूरी है। जब वह शक्ति जागती है तो ब्रह्म की प्राप्ति तक शांत नहीं बैठती। वह कुंडलिनी शक्ति ब्रह्म का साक्षात्कार, आत्मतत्व की प्राप्ति और अनंत का उद्घाटन कर देती है। अविनाशी ब्रह्म से नाना प्रकार के भाव उत्पन्न होते हैं और उसी में लीन हो जाते हैं। उसी सत से यह ब्रह्मांड पैदा हुआ है और उसी सत में यह ब्रह्मांड निवास करता है अंत में उसी में प्रतिष्ठित हो जाता है। ये भी पढ़ें.. भ्रम से मुक्त होने पर होता है ब्रम्हज्ञान: जब वेद पढ़ने से भी नही मिला ऋषि को तत्वज्ञान वह परब्रह्म ही सत्य है, वही आत्मा है। जैसे मकड़ी अपने स्वरूप से जाल बनाती है और फिर उसे निगलती है। उसी प्रकार उस परब्रह्म से स्वतः पैदा हुए चेतन ब्रम्ह से संपूर्ण जगत पैदा होता है। यह सब कुछ एकात्मक ब्रह्म स्वरूप है। इस रास्ते पर चलने के लिए हमें सच्चाई की डोर पकड़नी पड़ेगी। धर्म का आचरण करना पड़ेगा। स्वाध्याय करना पड़ेगा। शुभ कर्म करने पड़ेंगे। उन्नति के साधनों का उपयोग करना पड़ेगा। देव कार्य करने पड़ेंगे। पित्र कार्य करने पड़ेंगे। माता पिता को देवी देवता समझना होगा। निर्दोष कर्म करना, श्रेष्ठ का सम्मान करना, श्रद्धा पूर्वक दान देना, कर्तव्य पूरे करना, कर्म में अनासक्ति रखना। प्रेमपूर्ण भाव रखते हुए आगे बढ़ना ही ब्रह्म प्राप्ति का मार्ग है। सबसे आसान रास्ता है उसके समक्ष उपस्थित हो जाना उसके अनुकूल हो जाना सहज हो जाना ही पर्याप्त है| ये भी पढ़ें.. वेदों में शरीर को ब्रह्मांड क्यों कहा गया है? क्या है शरीर के अंदर यूनिवर्स होने का विज्ञान? P अतुल विनोद अतुल विनोद
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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