मन स्वयं की साँस, शरीर और शरीर की संवेदनाओं के आधार पर एकाग्र होता है|
विपश्यना ध्यान-पद्धति है। भगवान बुद्ध उन दिनों प्रचलित अनेक ध्यान-विधियों में से इसे खोजा और निर्वाण प्राप्त किया। यह विधि सरल एवं वांछित फल देने वाली है। इसमें कोई बाहरी आलम्बन नहीं लिया जाता, अपितु ऐसे आलम्बन के सहारे मन स्थिर किया जाता है, जो सब के लिए मान्य हो।
अपना स्वयं का श्वास, अपना शरीर और अपने शरीर पर होने वाली संवेदनाएं सब के लिए समान रूप से सुलभ आलम्बन है। किसी भी नाम या मंत्र का जाप नहीं, किसी भी शब्द या वस्तु का सहारा नहीं। इसका सबसे बड़ा लाभ यह होता है कि अपना मन किसी बाहरी आलम्बन में उलझता नहीं, मन स्वयं की साँस, शरीर और शरीर की संवेदनाओं के आधार पर एकाग्र होता है। अत: मन के विकार सहज रूप से दूर होने लगते हैं।
ऐसी एकाग्रता प्राप्त होने पर हम वर्तमान में जीना सीख जाते हैं। संवेदनाओं के प्रति राग-द्वेष न जगाकर मात्र द्रष्टा-भाव से देखने का प्रयास करते हैं। इस विधि के अभ्यास द्वारा सजग-सचेत होकर उन्हें द्रष्टा-भाव से देखने पर राग, द्वेष, मोह आदि नहीं बनते, साथ ही पुराने संग्रहीत भाव भी नष्ट होते जाते हैं। इस प्रकार यह ध्यान-पद्धति आत्म-कल्याण एवं निर्वाण प्राप्ति का सरल-सहज तथा सुखकर साधन है। रोग के कारण मनोविकार हैं, इन्हें श्वास-साधना से निर्विकार किया जा सकता है।
विपश्यना आंदोलन बौद्ध ध्यान प्रथा की एक नई परंपरा है। भारत में, सबसे प्रभावशाली विपश्यना संगठन एसएन गोयनका (1924-2013) द्वारा स्थापित विपश्यना अनुसंधान संस्थान है, जिसने एक नई और गैर- सांप्रदायिक प्रक्रिया में बौद्ध विपश्यना ध्यान को बढ़ावा दिया।
ध्यान केंद्रों के गोयनका नेटवर्क, उन्होंने 10 दिवसीय वापसी की पेशकश की। कई संस्थाएं-सरकारी और निजी दोनों क्षेत्र अब अपने कर्मचारियों के लिए पाठ्यक्रम प्रदान करती हैं। यह रूप ज्यादातर अभिजात वर्ग और मध्यम वर्ग के भारतीयों द्वारा प्रचलित है। यह आंदोलन यूरोप, अमेरिका और एशिया के कई अन्य देशों में फैल गया है। नवंबर 2008 में, इसका निर्माण मुंबई के बाहरी इलाके में पूरा हुआ।
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