Published By:धर्म पुराण डेस्क

व्रत पर्व क्या है: जानिए क्या है, व्रत और उपवास का धार्मिक महत्व? 

व्रत पर्वोत्सव भारतीय संस्कृति के जीवन प्राण हैं जो भारतीय जनमानस के रोम-रोम में समाये हुए हैं। 

भारतीय सनातन संस्कृति विश्व की सर्वाधिक प्राचीन संस्कृति है और अधिकाधिक स्वरूप में आज भी विद्यमान है। इसका कारण यही है कि भारतीय मनीषियों ने सांस्कृतिक नियमों को इस प्रकार से निष्पादित मूल किया, जिसे उच्च, मध्यम और निम्न इन तीनों स्तर के मनुष्यों द्वारा सहज रूप से अपनाया जा सके, साथ ही केवल मनुष्यों के संरक्षण के लिए ही नहीं अपितु अपर जीवों (जलचर, नभचर, चतुष्पद, सरीसृप आदि) के संरक्षण भी हो सके। 

प्रत्येक गृहस्थ को प्रतिदिन पहली रोटी गाय की और अंतिम रोटी कुत्ते के लिए तथा अन्य जीवों के लिए भी देने की परंपरा चलाई। ये दोनों ही जीव हमारे जीवनसंगी हैं, गाय जहाँ औषधि युक्त दूध से पोषण करती है वहीं कुत्ता सुरक्षा के लिए सबसे वफादार है।

भारतीय संस्कृति के मूल प्राणवेद हैं, वेदों का विस्तार वेदांगों के रूप में हुआ और आगे यह श्रृंखला पुराणों और कथाओं तक सहज ज्ञान गम्य होती चली गई। इस व्यवस्था में वेद को साक्षात् भगवान नारायण माना गया है और वेदांगों को भगवान के 6 अंग तथा ज्योतिष को भगवान का नेत्र माना गया है जो अदृश्य का दर्शन कराने में समर्थ है। 

काल गणना ज्योतिष के द्वारा ही संभव है और बिना काल (समय) के ज्ञान के कोई भी क्रिया या कार्य सफल नहीं हो सकता, सुखकारी नहीं हो सकता है- सकल पदारथ है जग माहीं के अनुसार इस पृथ्वी पर सभी पदार्थ यत्र-तत्र सर्वत्र न्यूनाधिक रूप से उपस्थित हैं पर कोई पदार्थ किसी विशेष समय पर ही अनुकूल और समय विशेष पर प्रतिकूल हो जाते हैं।

ज्योतिष और आयुर्वेद का परम सामंजस्य तो सनातन संस्कृति में जो व्रत पर्व व उपवास के नियम प्रतिपादित हैं उनमें देखने को मिलता है। प्रत्येक एकादशी तिथि को अन्न नहीं खाना चाहिए, क्यों? सनातन धर्म के आधार पर उपनिषदों में कहा है अर्थात् हमारा शरीर एक रथ है, दस इन्द्रियाँ आत्मानं रथिनं (5 ज्ञानेन्द्रियाँ, 5 कर्मेन्द्रियाँ) इस रथ के घोड़े और मन इस रथ की लगाम है जो सारथी रूप बुद्धि के हाथों में रहता है।

हमारे मन को भी शास्त्रकारों ने ग्यारहवीं इन्द्रिय माना है। मन के कारक चंद्रमा है। मन का संचालन या मन पर नियंत्रण चंद्रमा का होता है। चंद्रमा जब सूर्य से दूर होते हैं तो चंद्रमा की एक कला का नाम ही एक तिथि है और ग्यारहवीं कला ही एकादशी है और ग्यारहवीं इन्द्रिय भी मन है। 

एकादशी तिथि को चंद्रमा और मन का परम सायुज्य होता है। मतलब कि इस शुभ समय का सदुपयोग हो, मन पर नियंत्रण इस समय आसानी से हो। सकता है। इस समय का निर्धारण काल ज्ञान (ज्योतिष) के बिना संभव नहीं। यहाँ ज्योतिष की सीमा समाप्त हो जाती है और आयुर्वेद का प्रारंभ मन पर नियंत्रण के लिए क्या आहार-विहार उचित है यह आयुर्वेद से ही ज्ञात हो सकता है। 

ज्योतिष आयुर्वेद के इस निर्णय को धर्म शास्त्रों ने माना और घोषणा कर दी कि एकादशी तिथि को अन्न से और विशेषतः चावल से परहेज रखें। इस दिन चावल खाना, लट, कीट या कृमि खाने के समान है। 

जो कंदमूल या फल भूमि से स्वतः उत्पन्न होते हैं, जिनके उत्पादन में भूमि पर हल नहीं चलाना पड़ता, उन पदार्थों को जो आसानी से पच सके और वात-पित्त व कफ को नहीं बढ़ाए उनको ग्रहण करना चाहिए। लहसुन, प्याज और लाल मिर्च तो इस दिन त्याग ही देना चाहिये। ये तामसिक गुण को बढ़ाते हैं, राजस और तामस गुणों की अधिकता में मन पर नियंत्रण करना व्यर्थ है।

लगभग इन्हीं ज्योतिषीय कारणों से शरीर के स्वास्थ्य पर ध्यान केन्द्रित रखते हुए, प्रत्येक मास में और तिथि या पर्व विशेष को खानपान के नियम आयुर्वेद शास्त्रियों ने गढ़े हैं। ज्योतिष, आयुर्वेद और अन्य वैदिक विद्याओं का समेकित उपयोग और व्यवहार, भारतीय सनातन धर्म में व्रत-पर्वो के रूप में अपनाया जा रहा है।

व्रत और उपवास दोनों शब्दों का अर्थ अलग-अलग है। वृणोति निबधाति कर्तारम् इतिव्रतम्। अर्थात् कोई भी कर्म फलदायक होने के कारण, कर्म कर्ता को बाँध लेता है जो भी कर्म कोई करता है उसका फल उसे भोगना पड़ता है। इसलिए कर्म को ही व्रत कहते हैं। किसी कार्य को नियम से करने का निश्चय ही व्रत है परंतु लौकिक रूप से व्रत शब्द को, उपवास के अर्थ में प्रयुक्त किया जा रहा है।


 

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