जीवन में व्यक्ति किसी न किसी मोड़ पर बंधन का अनुभव करता है उसे लगता है कि वह अनेक प्रकार के बंधनों में बंध गया है और अपने वास्तविक लक्ष्य से भटक गया है।
बंधन का वास्तविक कारण क्या है ? धर्म शास्त्रों में कहा गया है कि ऐसा होना चाहिए और ऐसा नहीं होना चाहिए- इस कामना से ही बन्धन होता है। यह कामना सम्पूर्ण पापों की जड़ है। अतः कामना का त्याग करना अत्यंत आवश्यक है।
वास्तव में कामना की कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं है। कामना अभाव से उत्पन्न होती है और 'स्वयं' (सत्-स्वरूप) में किसी प्रकार का अभाव है ही नहीं और हो सकता भी नहीं। इसलिये 'स्वयं' में कामना है ही नहीं।
केवल भूल से शरीरादि असत् पदार्थों के साथ अपनी एकता मानकर मनुष्य असत् पदार्थों के अभाव से अपने में अभाव मानने लगता है और उस अभाव की पूर्ति के लिये असत् पदार्थों की कामना करने लगता है।
साधक को इस बात की तरफ ख्याल करना चाहिये कि आरम्भ और समाप्त होने वाली क्रियाओं से उत्पन्न और नष्ट होने वाले पदार्थ ही तो मिलेंगे। ऐसे उत्पत्ति-विनाशशील पदार्थों से मनुष्य के अभाव की पूर्ति कभी हो ही नहीं सकती।
जब इन पदार्थों से अभाव की पूर्ति होने का प्रश्न ही नहीं है, तो फिर इन पदार्थों की कामना करना भी भूल ही है। ऐसा ठीक-ठीक विचार करने से कामना की निवृत्ति सहज हो सकती है।
कामना न रहने से संचित कर्म विलीन हो जाते हैं। जब तक शरीर रहता है, तब तक प्रारब्ध के अनुसार अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति आती है, पर उससे वह सुखी-दुखी नहीं होता अर्थात उस परिस्थिति का उस पर कोई असर नहीं पड़ता - यह प्रारब्ध कर्म का विलीन होना है। फलेच्छा न रहने से क्रियमाण कर्म अकर्म हो जाते हैं अर्थात् फल देने वाले नहीं होते - यह क्रियमाण कर्म का विलीन होना है।
भाव-मनुष्य के पास शरीर, योग्यता, पद, अधिकार, विद्या, बल आदि जो कुछ है, वह सब मिला हुआ है और बिछुड़ने वाला है। इसलिये वह अपना और अपने लिए नहीं है, प्रत्युत दूसरों की सेवा के लिये है।
इस बात में हमारी भारतीय संस्कृति का पूरा सिद्धांत आ जाता है। जैसे हमारे शरीर के सभी अवयव शरीर के हित के लिये हैं, ऐसे ही संसार के सभी मनुष्य संसार के हित के लिये हैं।
साधक संजीवनी में स्वामी रामसुखदास कहते हैं कोई मनुष्य किसी भी देश, वेश, वर्ण, आश्रम आदि का क्यों न हो, अपने कर्मों के द्वारा दूसरों की सेवा करके सुगमतापूर्वक अपना कल्याण कर सकता है।
हमारे में जो कुछ भी विशेषता है, वह दूसरों के लिये है, अपने लिए नहीं। अगर सभी मनुष्य ऐसा करने लगें तो कोई भी बद्ध नहीं रहेगा, सब जीवन्मुक्त हो जाएँगे। मिली हुई वस्तु को दूसरों की सेवा में लगा दिया तो अपने घर का क्या खर्च हुआ? मुफ्त में कल्याण होगा।
इसके सिवाय मुक्ति के लिए और कुछ करने की जरूरत ही नहीं है। जितना हमारे पास है, उसी को सेवा में लगाने की जिम्मेदारी है, उससे अधिक की जिम्मेदारी है ही नहीं। उससे अधिक मनुष्य कर सकता भी नहीं। अपने पास जितनी वस्तु, योग्यता और सामर्थ्य है, उतनी पूरी सेवा में खर्च करेंगे तो कल्याण भी पूरा ही होगा।
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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