Published By:धर्म पुराण डेस्क

जीव गर्भ में प्रवेश कब करता है, क्यों मिलती है मानव योनि सुख और दुख..

अखिल विश्व में हमारा भारत ही एक ऐसा देश है जो पुनर्जन्म के सिद्धांत में पूर्ण विश्वास ही नहीं रखता, अपितु समय-समय पर त्रिकालदर्शी योगियों द्वारा इस प्रकार के उदाहरण प्रत्यक्ष रूप से प्रस्तुत करने में समर्थ रहा है। 

अणिमा आदि अष्ट सिद्धियों को प्राप्त महापुरुष तो परकाया-प्रवेश तक करके ऐसा दिखाते आये हैं। इससे यह प्रत्यक्ष सिद्ध होता है कि आत्मा अजर और अमर है तथा वह अपने प्रारब्ध (पूर्वसंचित कर्मफल) के अनुसार संबंधित मानव, पशु कीट आदि योनियों में जन्म लेता है। श्रीमद्भागवत तथा गरुड़ पुराण (सारोद्धार) आदि में इस बात का स्पष्ट प्रमाण मिलता है

जीविका गर्भ प्रवेश..

'जीव प्रारब्ध-कर्म वश देह-प्राप्ति के लिये पुरुष के वीर्य-कण के आश्रित होकर स्त्री के उदर में प्रविष्ट होता है।' आयुर्वेद के विभिन्न ग्रंथों के आधार पर जीव के पूर्वकर्मानुसार गर्भ प्रवेश का वर्णन इस प्रकार उपलब्ध होता है- 'यह आत्मा जैसे शुभाशुभ कर्म पूर्वजन्म के संचित करता है, उन्हीं के आधार पर उसका पुनर्जन्म होता है और पूर्व देह में संस्कारित गुणों का प्रादुर्भाव इस जन्म में होता है।

जैसा कि योगिराज श्रीकृष्ण ने गीता के छठे अध्याय में बात की पुष्टि-तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहिकम्' सवाक्य से की है। इसी कारण हम संसार में किसी को रूप किसी को सुन्दर, किसी को लंगड़ा, किसी को तुला, किसी को मूक और किसी को कुबड़ा तो किसी को अंधा और किसी को काना देखते हैं। 

इसी कारण कोई जीव किसी महापुरुष के घर जन्म लेता है कोई किसी अधम के घर कोई ऐश्वर्यशाली के घर में लेता है तो कोई अकिंचन कुटीर में पलता है। यह सम्पूर्ण विविधता पूर्वकृत कर्म के अनुसार होती है, जिसे कि हम 'दैव' भी कहते हैं|

'पूर्वजन्मकृतं कर्म तद् दैवमिति कथ्यते ।' चरक संहिता के शरीर स्थान के चतुर्थ अध्याय में भी इस बात की पुष्टि इस प्रकार है- 'सबसे पूर्व मनरुपी कारण के साथ संयुक्त हुआ| आत्मा धातु गुण के ग्रहण करने के लिये प्रवृत्त होता है अर्थात अपने कर्म के अनुसार सत्त्व, रज तथा तम- इन गुणों के ग्रहण के लिए अथवा महाभूतों के ग्रहण के लिये प्रवृत्त होता है। 

आत्मा का जैसा कर्म होता है और जैसा मन उसके साथ है, वैसा ही शरीर बनता है, वैसे ही पृथ्वी आदि भूत होते हैं तथा अपने कर्म द्वारा प्रेरित किए हुए मनरुपी साधन के साथ स्थूल शरीर को उत्पन्न करने के लिए उपादानभूत भूतों को ग्रहण करता है। 

वह आत्मा हेतु, कारण, निमित्त, कर्ता, मन्ता, बोधयिता, बोद्धा, द्रष्टा, धाता, ब्रह्मा, विश्वकर्मा, विश्वरूप, पुरुषप्रभव, अव्यय, नित्य गुणी, भूतों का ग्रहण करने वाला प्रधान, अव्यक्त, जीवज्ञ, प्रकुल, चेतनावान्, प्रभु, भूतात्मा, इन्द्रियात्मा और अंतरात्मा कहलाता है।'

'वह जीव गर्भाशय में अनुप्रविष्ट होकर शुक्र और शोणित से मिलकर अपने से अपने को गर्भ रूप में उत्पन्न करता है। अतएव गर्भ में उसकी आत्मा संज्ञा होती है।'

‘क्षेत्रज्ञ, वेदयिता, स्पृष्टा, घ्राता, द्रष्टा, श्रोता, रसयिता, पुरुष स्त्रष्टा, गन्ता, साक्षी, धाता, वक्ता इत्यादि पर्यायवाची नामों से, जो ऋषियों द्वारा पुकारा जाता है, वह क्षेत्रज्ञ (स्वयं अक्षय, अचिन्त्य और अव्यय होते हुए भी) देव के संग से सूक्ष्म भूत-तत्व, सत्व, रज, तम, दैव, आसुर या अन्य भाव से युक्त वायु से प्रेरित हुआ गर्भाशय में प्रविष्ट होकर (शुक्र-आर्तव के संयोग होते ही) तत्काल उस संयोग में अवस्थान करता है।

नंदकिशोर जी गौतम


 

धर्म जगत

SEE MORE...........