Published By:अतुल विनोद

सच्चा ध्यान कब घटित होता है ? अध्यात्म का ध्यान से क्या संबंध है? - अतुल विनोद
हम सब अकल्पनीय रूप से हर क्षेत्र में तरक्की कर रहे हैं, लगातार नई-नई खोजें हो रही है, हम नई नई तकनीकी से लैस हो रहे हैं, विज्ञान के क्षेत्र में इतना आगे बढ़ जाने के बावजूद भी मनुष्य इंसान नहीं बन पाया है, उसकी लड़ने की झगड़ने, ईर्ष्या करने की प्रवृत्तियां नहीं बदली है|
वह आज भी उतना ही कामुक, व्यभिचारी, लोभ ,घमंड, अहंकार, कपट ,दुख, पीड़ा और कष्ट से भरा हुआ है जितना पहले था | ज्ञानियों की भीड़ में आज भी मनुष्य अपनी जिंदगी से घबराया हुआ,डरा हुआ, पागलों की तरह भागता हुआ, अशांत, अंतर्विरोध से भरा हुआ, अन्दर की निर्धनता को महसूस करता हुआ, अतृप्त, शून्य और एकाकी है | शायद ही कुछ मनुष्य हों जिनके जीवन में वास्तविक ध्यान घटित होता हो क्यूंकि!
सब कुछ अस्त-व्यस्त है, खुद से खुद का झगड़ा है, खुद से खुद का संघर्ष है, विसंगतियां है| लक्ष्य है ना उद्देश्य, वह जहां भी देखता है वहां उसे अविश्वास ही मिलता है! देवालयों, साधना उपासना , आध्यात्मिक और दार्शनिक प्रणालियों में, हर जगह से वह खाली हाथ लौट रहां है? क्यूँ? क्या इनमें कोई दोष है या उसमें स्वयं कोई कमी है?
लोग ध्यान के अवास्तविक अनुभवों को आध्यात्मिक प्रगति समझ रहे हैं| किसी चीज की निरंतर रट उन्हें ध्यान की प्रक्रिया लगती है, इससे उन्हें दिव्य दर्शन के अनुभव होते हैं| यह दिव्य दर्शन और कुछ नहीं आत्मसम्मोहन की स्थिति है, जो जिस धर्म का है ध्यान में उसे उसी धर्म के देवता के दर्शन होते हैं|
वस्तुतः ध्यान जीवन को स्वर्ग बना देने वाली एक परम और सर्वोच्च साधना है, आत्मसम्मोहन ध्यान नहीं है, अभ्यास से मन को एकाग्र करने की कला सीख लेना आध्यात्मिक प्रगति नहीं है| वास्तविक ध्यान तब घटित होता है, जब व्यक्ति विकारों से रहित, स्वस्थ, घ्रणित भावनाओं से मुक्त, कृतज्ञता , करुणा और प्रेम से युक्त हो| जब उसके पास शारीरिक,मानसिक और अध्यात्मिक ऊर्जा हो, इसके बिना वह ध्यान की यात्रा नहीं कर सकता| ध्यान तो अध्यात्मिक शक्ति द्वारा प्रदत्त उपलब्धि है| जब गुरु शक्ति से अंतर की शक्ति का जागरण हो जाता है तो मनुष्य ध्यान की यात्रा पर निकल पड़ता है|
जिसने अपने शरीर को नष्ट कर दिया है, उसकी दुर्गति कर रखी है, इतना भोजन, इतने विचार, इतना व्यवहार, इतने मित्र यार? इतना सब कुछ भरा हुआ है कैसे घटेगा ध्यान?
अतीत के भार से दबा हुआ मन स्मृतियों और अनुभवों का द्वार है|
जब तक चेतन और अचेतन मन खाली नहीं होंगे ध्यान कैसे लगेगा?
ध्यान घटित नहीं होगा तो फिर ज्ञान कैसे प्रकट होगा?
ध्यान योग सर्वोच्च योग है, लेकिन इससे पहले व्यक्ति को योग के निचले पायदानों से होकर गुजरना पड़ेगा| व्यक्ति को अपने क्रियाकलापों, अपनी बातों,अपने संबंधों,अपनी प्रवृत्तियों पर ध्यान देना पड़ेगा| यदि वो ऐसा करने में सक्षम नहीं है तो फिर सद्गुरु को पकड़ ले सद्गुरु वो जो एक क्षण में उसकी आन्तरिक शक्ति को उद्बोधित कर दे, ये इश्वरी शक्ति फिर ध्यान और समाधि को उपलब्ध करा देगी|
शरीर, मन, मस्तिष्क और आत्मा चारों का कायाकल्प हमारे आचार-व्यवहार हमारे संग-प्रसंग और विचार-भावों पर निर्भर करता है| ध्यान मन को यांत्रिक बना देने का नाम नहीं है, मन को तोड़ने मरोड़ने का नाम नहीं है|
जब आप अपने संस्कारों के प्रति, अपने समाज के प्रति, अपने अचार व्यवहार के प्रति, अपने शरीर, मन, मस्तिष्क, और आत्मा के प्रति सजग हो जाते हैं | जब आप अपने आप को विकार रहित करने की प्रक्रिया में लग जाते हैं| जब आप अपने अंदर की शक्तियों को जागृत करने में जुट जाते हैं| तब ध्यान घटित हो सकता है|
अपने आपको भार से मुक्त कीजिए, अपमान,सम्मान, प्रशंसा, बुराई - हर एक संस्कार से अपने आप को मुक्त कर दीजिए|
ध्यान मन की गुणवत्ता है, ध्यान निश्छल अवस्था है, ध्यान सौंदर्य है|
आकांक्षा रहित मन, प्रेम से सहित मन, आनंद से संयुक्त स्वभाव|
सौंदर्य ,प्रेम और आनंद जब यह तीनों अंतर-तम में घटित हो जाए, तब ध्यान होता है , इसी को सच्चिदानंद कहते हैं|
सत, चित और आनंद का आविर्भाव ही अध्यात्म का उद्देश्य है|
सत्य की खोज अध्यात्म का ध्येय है और सत्य तभी प्राप्त होता है, जब हमारी चेतना जागृत हो जाती है| सत्य और चेतना एक-दूसरे के पर्याय हैं चेतना यानी अपने आपको जानना, अपने आप को पहचानना, योग उसी चैतन्य को जानने का मार्ग है|
अतुल विनोद
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