Published By:सरयूसुत मिश्रा

तीर्थ यात्रा से कब होता है लाभ ? सरयुनंदन 

तीर्थ यात्रा आज एक फैशन सा बन गया है| नया साल हो, जन्मदिन हो या परिवार को छुट्टियां मनाने जाना हो| लोग तीर्थ यात्रा की योजना बना लेते हैं| तीर्थ यात्रा पर जाना कोई आसान काम नहीं है| तीर्थ यात्रा के नाम पर भोंडा प्रदर्शन इंसान को लाभ की बजाय नुकसान पहुंचा देता है| सवाल यह है कि किसी को भी तीर्थ यात्रा पर क्यों जाना चाहिए? आजकल घूमने फिरने और छुट्टियां मनाने के लिए पर्यटन स्थलों पर जाने के बदले तीर्थ स्थलों पर जाने की परंपरा सी बन गई है| इससे ऐसा लगता है कि घूमना फिरना भी हो गया और तीर्थाटन भी हो गया| जबकि ऐसा होता नहीं है| तीर्थ जाना एक धार्मिक अनुशासन है| अगर वह अनुशासन नहीं माना जाए तो तीर्थ जाने का कोई लाभ नहीं होता है|

पहले तो यह समझना जरूरी है कि तीर्थ क्या है| अगर भगवत प्राप्ति को तीर्थ के रूप में देखा जाए तो इसके लिए किसी भी स्थान पर जाने की कोई आवश्यकता ही नहीं है| क्योंकि भगवान हर व्यक्ति के हृदय में निवास करते हैं| जो हृदय में ही निवास करता है उसको पाने के लिए किसी दूसरे स्थान पर जाने की क्या जरूरत है|

जहां कभी भगवान या महापुरुष रहे हों उस स्थान को तीर्थ माना जाता है| मथुरा, अयोध्या, काशी हों या  हिंदुओं के चारों धाम, 12 ज्योतिर्लिंग हों, 51 शक्ति पीठ हों या अन्य हापुरुषों के जन्म स्थल या फिर साधना स्थल हों   उन्हें तीर्थ कहा जाता है| भारत में तो जगह जगह पर तीर्थ हैं| इन तीर्थ स्थलों पर जितने तरह के देवी देवता या ईश्वर माने जाते हैं वह सब एक ही स्वरूप है| भगवान अलग अलग नहीं होते परम सत्ता एक ही है| वही भगवान वृंदावन में श्री कृष्ण बनकर लीला करते हैं, तो वही भगवान अयोध्या में राम बनते हैं| वही भगवान शिव हैं तो वही जगन्नाथ जी हैं| दो चार प्रकार के भगवान नहीं होते एक ही सुप्रीम पावर है जो सबके हृदय में निवास करते हैं|

प्रश्न यह है कि जब सभी जगह एक ही भगवान विद्यमान हैं तो हम किसी मंदिर में मेहनत करके, कष्ट उठाकर जाएं, उससे क्या लाभ है? यात्रा की तकलीफ अलग पैसे का खर्च अलग, और कहीं जेब कट गई तो उसका कष्ट अलग| इतना कष्ट और पैसा खर्च कर तीर्थ में जाकर लाभ के बजाय हानि कमा कर आने से क्या फायदा ?

भारतीय संस्कृति में तीर्थों में पहले संत रहते थे, महात्मा लोग रहते थे, तीर्थ यात्रा पर जाने वाला व्यक्ति संतों और महात्माओं से प्रवचन सिद्धांत और ज्ञान प्राप्त कर अपना कल्याण करते थे| अब तीर्थ स्थलों पर ऐसी स्थिति नहीं लगती| अब तो सभी जगह   व्यवसायिक प्रवृत्तियां हावी हैं| यहां तक कि पंडित पुजारी भी तीर्थ यात्रियों को सुख से ज्यादा दुख पहुंचाते हुए दिखाई पड़ते हैं|

कई बार तो तीर्थयात्री यह कहते हुए भी सुने जाते हैं कि कान पकड़ते हैं अब यहाँ दोबारा नहीं आएंगे| भगवान इंसान के हृदय में बसते हैं, भगवान सर्वत्र हैं, यह बात यदि इंसान मान ले,  गांठ बांध ले, हमारे वेद पुराण भी कह रहे हैं कि भगवान ह्रदय में है, तो इसी बात को अगर ह्रदयंगम किया जाए, बार-बार इसका अभ्यास किया जाए, तो इतना सुख मिलेगा, जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती|

जब भगवान को ह्रदय में महसूस करोगे तो बाहर भागना बंद हो जाएगा| तीर्थ जाना है तो जरूर जाएं, लेकिन इस बात का सदैव स्मरण रखें कि तीर्थ का महत्व कुछ नहीं होता, इसके भीतर भगवत भावना करने का महत्व होता है| भीतर भगवत भावना जितनी करोगे उतना ही लाभ मिलेगा| भगवान के धाम, भगवान के नाम, भगवान के संत, यह सब एक हैं लेकिन भावना हो बस यही सार है|

तीर्थ यात्रा में हमारा लक्ष्य भगवान का प्रेम और विश्वास  पाना है| अगर भगवान में हमारा प्रेम बधा तो इसका मतलब है कि हमने ठीक-ठाक तीर्थ किया| प्रेम नहीं बढ़ा तो इसका मतलब तीर्थ यात्रा बेकार गई| तीर्थ यात्रा के दौरान लोगों के व्यवहार से मन खिन्न हो गया तो हमारा नुकसान हो गया| तन और मन को कष्ट पहुंचा कर, धन को बिगाड़ कर, तीर्थ यात्रा गए जरूर, लेकिन अगर भगवान में विश्वास नहीं बढ़ा तो कोई लाभ नहीं हुआ, नुकसान हुआ सो अलग|

तीर्थ का महत्व तभी है जब हमारा मन भगवान में अधिक लग जाए| यही ध्यान में रखकर तीर्थ यात्रा पर जाना चाहिए| तीर्थ यात्रा भगवान में विश्वास और प्रेम बढ़ाने का माध्यम बने तभी तीर्थ यात्रा लाभकारी है| अन्यथा तन मन धन को कष्ट पहुंचा कर तीर्थ यात्रा के कटु अनुभवों में लटके रहने से कोई लाभ नहीं है| जब भी तीर्थ यात्रा पर जाएं, भगवान के प्रति प्रेम और विश्वास को ही भजते रहें| तीर्थजाने में होने वाले कष्ट, पैसे की बर्बादी और यात्रा के दौरान लोगों के दुर्व्यवहार, पंडे पुजारियों के व्यवहार से, बिना प्रभावित हुए तीर्थ के अपने मूल लक्ष्य ईश्वर के प्रति प्रेम को प्राप्त करने में कुछ भी हम हासिल कर सके तो ही तीर्थ यात्रा का लाभ है|

 

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