Published By:धर्म पुराण डेस्क

समुद्र मंथन से जब अमृत निकला

सबसे बाद में अमृत प्रकट हुआ। श्री विष्णु जी ने बड़ी चतुराई से सारा अमृत देवताओं में ही वितरित कर दिया।

शिव कृपा से राहु जान गया था कि अमृत विभाजन में दैत्यों से छल होगा| 

राहु से प्रभावित या कालसर्प राहु के नक्षत्र वाले जातक को पूर्वाभास हो जाता है। अतः राहु भी देवता का रूप बना कर सूर्य और चन्द्रमा के मध्य बैठ गया और अमृत लेकर पी लिया। सूर्य-चन्द्रमा ने राहु की चालाकी जान ली। 

दोनों ने भगवान विष्णु को बता दिया। विष्णु जी ने तत्काल अपने सुदर्शन चक्र से राहु का सिर काट लिया, किन्तु अमृत पान के कारण वह मरा नहीं। 

राहु सर्प रूप होना भी जानता था। जब उसका सिर कटा तो वह भय के कारण सर्प बन गया। शरीर में सिर का ही मुख्य स्थान होता है, अतः राहु का सिर (फन) राहु ही कहलाया और सर्पाकृति के नीचे का धड़ डंडे की भांति रह गया, वह केतु कहलाया। केतु का अर्थ झंडा होता है और झंडे में डंडे का ही मुख्य स्थान है। इसीलिए नवग्रहों में केतु का चिह्न झंडा ही बनाया जाता है।

इस दुर्घटना में समस्या यह उत्पन्न हो गई कि भगवान शिव के द्वारा विष्णु को दिए गए सुदर्शन चक्र से कोई देव, दानव, मनुष्य आदि मरे नहीं तो सुदर्शन चक्र की महिमा भंग होती है, दूसरी ओर अमृत पान के पश्चात यदि कोई मरता है, तो ईश्वरीय नियम भंग होता है। 

मध्यम मार्ग यह निकला कि राहु के सिर और धड़ दोनों की फन और धड़ की सर्पाकृति छाया जीवित रही। इसलिए ये दोनों छाया ग्रह बन गये। शत्रुता के कारण राहु-केतु ग्रह की छाया ही पृथ्वी की छाया के रूप में अमावस्या के दिन सूर्य को और पूर्णिमा की रात को चंद्रमा को ग्रस लेती है। यही सूर्यग्रहण और चंद्रग्रहण है।

राहु द्वारा शीघ्रता से अमृतपान करने से अमृत पेट में चला गया अर्थात् घड़ में अमृत रुका। इसलिए केतु तो शुभ ग्रह हुआ और राहु खिसियाकर दुष्ट ग्रह हो गया। 

ज्योतिष के अनुसार केतु ग्रह जिस ग्रह के साथ होता हैं। उसे शक्तिशाली बना देता है।


 

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