धर्मराज युधिष्ठिर
महाराज पांडु के वन में परलोकगामी होने पर भीष्म पितामह पाण्डवों का हस्तिनापुर ले आये। आचार्य द्रोण ने उन्हें शस्त्र शिक्षा दी। धृतराष्ट्र के अंधे होने के कारण पांडु राज्य के अधिकारी हुए थे। न्यायतः पाण्डु के पश्चात उनके ज्येष्ठ पुत्र को राज्य मिलना चाहिए। वैसे भी युधिष्ठिर कौरवों से बड़े थे। दुर्योधन राज्यलिप्सा के कारण बचपन से ही पाण्डवों से द्वेष करने लगा। धृतराष्ट्र अपने पुत्र के प्रेमवश उसका समर्थन करते थे।
युधिष्ठिर अजातशत्रु थे। संसार में उन्होंने कभी किसी को अपना शत्रु नहीं माना। भीम को दुर्योधन ने विष दिया, लाक्षा भवन में पांडवों को जलाने का प्रयत्न किया,
राजसूय यज्ञ के पश्चात छलपूर्वक जुए में युधिष्ठिर को जीतकर पांडव सम्राज्ञी द्रौपदी को भरी सभा में अपमानित किया उसने। प्रत्येक दशा में युधिष्ठिर शांति बना रहे। उन्होंने अपने भाइयों को नियंत्रित रखा। सत्य और धर्म पर वे अविचल बने रहे। वे इतने धर्मप्राण थे कि जिस देश में रहते, वहां अकाल नहीं पड़ता और प्रजा सर्वदा सुखी रहती।
दुर्योधन की दुष्टता से वनवास मिला। वहां भी वह अपमानित करने के लिये ससैन्य आ रहा था। गन्धर्वराज चित्ररथ ने उसे बंद कर लिया। युधिष्ठिर को समाचार मिला। 'जो भी हो, है तो अपना भाई ही। दूसरों के विरुद्ध हम सब एक हैं।' उन्होंने अर्जुन को भेजकर चित्ररथ दुर्योधन को मुक्त कराया और बड़े सम्मान से उसे विदा किया।
सरोवर पर जल लेने के गये हुए चारों भाई प्राणहीन पड़े थे। वहां एक यक्ष दिखाई दिया। युधिष्ठिर के उत्तर से संतुष्ट होकर यक्ष ने जब एक भाई को जीवित करने को कहा, तब उन्होंने नकुल को जीवित करना चाहा। माता माद्री का उन्हें तब भी ध्यान था। यक्ष उनकी धर्म निष्ठा से प्रसन्न हो गया। उसने सबको जीवित कर दिया। इसी प्रकार विराटने उनके ऊपर पैसे से प्रहार किया था; पर वे चिंतित थे कि कहीं अर्जुन ने देख लिया तो विराट नरेश का अनिष्ट होगा।
महाप्रस्थान के समय दिव्य रथ उन्हें लेने आया। उस समय उन्होंने अपने अनुगामी कुत्ते को छोड़कर स्वर्ग जाने तक अस्वीकार कर दिया। उनकी धर्मनिष्ठा देखकर कुत्ता धर्म के रूप में प्रकट हो गया। इस प्रकार महाराज युधिष्ठिर का पूरा जीवन धर्म, शान्ति, क्रोध हीनता, निर्वैरता तथा समदर्शिता का मूर्तिमान् आदर्श है। उनके धर्म और भक्ति से ही भगवान् श्रीकृष्ण उनके अपने हो गये थे।
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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