Published By:धर्म पुराण डेस्क

विपश्यना की शुरुआत कहां से हुई..

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ध्यान चेतना की वह अवस्था है, जिसमें विचारों का सामंजस्य स्थापित होकर समस्त अनुभूतियाँ एक ही अनुभूति में विलीन हो जाती हैं। ध्यान की चरम अवस्था में सभी भेद समाप्त हो जाते हैं। 

संकुचित सीमित आत्मा परमात्मा में कुछ समय के लिये विलीन हो जाता है। ध्यान की जितनी आवश्यकता आध्यात्मिक जीवन में है उतनी ही लौकिक जीवन में भी। शक्ति का प्रयोग अच्छी या बुरी किसी भी दिशा में किया जा सकता है। इसलिए ध्यान को अध्यात्म के साथ जोड़ना अधिक सार्थक है। 

यह मन विचारों का विशद जाल में अनवरत उलझा रहता है। यहाँ तक कि सोते समय स्वप्न में भी मन विचारों के जंजाल में भटकता रहता है। मन की शक्ति निरर्थक विचारों से क्षीण होती है। अच्छे विचारों से मन की शक्ति बढ़ती है तथा सुख और शांति की अनुभूति बढ़ती है। 

आशा, निराशा, उत्तेजना, हर्ष-शोक, मोह, लोभ, राग-द्वेष के विचार सदैव चलते रहते हैं। मन की ये सब वृत्तियाँ क्लेशकारक हैं। मन की इन क्लेशकारक वृत्तियों को ध्यान के द्वारा नियंत्रित किया जा सकता है। ध्यान के अभ्यास से हम अपनी संकुचित परिधियों से ऊपर उठ सकते हैं, ध्यान के अभ्यास से मन की दुर्बलता दूर हो जाती है। परमात्मशक्ति का ध्यान शक्ति के अनंत स्रोत की ओर तो अग्रसर करता ही है, प्रबल मानसिक एकाग्रता भी प्राप्त होती है जिससे अनेक कठिन कार्य सम्पन्न किये जा सकते हैं। 

मन के निरर्थक क्रियाकलापों को नियंत्रित करके नष्ट कर देना चाहिये। तामसिक, राजसिक वृत्तियों का नियम न हो जाने पर सात्विक वृत्तियाँ दृढ़ होंगी। सभी व्यक्तियों का मानसिक स्तर एक-सा नहीं होता। मानसिक स्तर तथा साधना में लगन के अनुसार सफलता प्राप्त होती है।

ध्यान की विविध पद्धतियों में से एक विपश्यना पद्धति भी है। इसका मुख्य भाव है- सतत जागरूक रहकर मन की गतिविधियों का अवलोकन करना। अप्रमाद से अभ्यास करते रहने पर धीरे-धीरे साधक की अन्तर्दृष्टि खुल जाती है। अपार शांति प्राप्त होती है। 

यह सद्यः फलदायक है। इसका अभ्यास करके निर्वाण प्राप्त किया जा सकता है। मन की शुद्धि के लिये, दुखों कष्टों से छुटकारा पाने के लिये, मन की चंचलता का नियमन करके मोक्षप्राप्ती की अनूठी पद्धति है- विपश्यना भावना का सतत अभ्यास।

ध्यान की विधि:

श्वास लेते समय उदर के उठने तथा गिरने के रूप में गति होती है। प्रारम्भ में इन गतियों पर ध्यान देने का अभ्यास करना चाहिये। अपना ध्यान श्वास-प्रश्वास पर ले जाए। श्वास लेने से पेट ऊपर की ओर उठता है और छोड़ते समय नीचे बैठता है। यदि आरम्भ में उठने और गिरने की प्रक्रिया का ठीक-ठीक यथावत् आभास न मिल सके तो पेट पर एक हाथ या दोनों हाथ रखने से यह क्रिया स्पष्ट हो जाएगी कि श्वास लेने से पेट उठता है और श्वास छोड़ने से पेट गिरता है। 

अब पेट के उठने और गिरने पर ध्यान को केंद्रित करे। साधक के लिये ध्यान में स्मृति, समाधि और ज्ञान को उद्बुद्ध करने के लिए यह अत्यंत सरल और परम सहायक क्रिया है। जैसे-जैसे अभ्यास बढ़ता जाएगा, श्वास-प्रश्वास के आने-जाने अथवा पेट के उठने-गिरने का अभ्यास सहज हो जायगा।

विपश्यना का अभ्यास जैसे-जैसे बढ़ता जाएगा वैसे-वैसे मन के प्रत्येक भावों को आप ठीक-ठीक पकड़ सकेंगे। आरम्भ में जबकि स्मृति और समाधि अभी अपरिपक्क है, मन के प्रत्येक भाव तत्काल-ही-तत्काल पकड़ पाना कठिन प्रतीत होगा। 

आरम्भ में तो समझ में नहीं आएगा कि इन्द्रिय द्वारों पर सजग और सावधान रहकर, अप्रमत्त रहकर भावों को कैसे पकड़ा जाए, परंतु श्वास प्रश्वास के आने-जाने की क्रिया तो स्वयमेव निरंतर चल ही रही है, उसे खोजने के लिए कहीं बाहर भटकना नहीं है। 

अतएव सुस्थिर चित्त से श्वास के आने जाने या पेट के उठने-गिरने की प्रक्रिया पर ध्यान रखे और खूब गहराई से-ध्यान से देखता रहे। हाँ, आने-जाने या उठने-गिरने पर ध्यान तो रहे, परंतु इन शब्दों को मुख से उच्चारण करने की आवश्यकता नहीं है। 

श्वास प्रश्वास की या पेट के उठने और गिरने की क्रिया को अधिक जागृत या बलवती बनाने के लिये जोर-जोर से श्वास लेने की जरा भी आवश्यकता नहीं है। जोर-जोर से जल्दी-जल्दी श्वास लेने पर तुरंत थकावट आ जाएगी। इसलिए आवश्यक है कि साधक सहज रूप में ही श्वास–प्रश्वास की छंदमय गति या पेट के उठने और गिरने पर ध्यान रखें।

इस प्रकार जब श्वास के आने-जाने या पेट के उठने-गिरने पर अपना ध्यान जमाये हुए हैं, यह सर्वथा स्वाभाविक ही है कि मन संकल्प, संस्कार, इच्छाएं, विचार, कल्पनाओं की भीड़ लगा दे। इन मानसिक क्रियाओं की अवहेलना नहीं की जा सकती। वे जैसे ही आयें तुरन्त उसी क्षण उन्हें अवलोकित कर लेना चाहिये, मन-ही-मन उन्हें देख लेना चाहिए। 

बस, देखने मात्र से वे ढह या गल जाएगी, बशर्ते कि उनमें उलझे नहीं। सतत जागरूकता और सावधानी ही इस साधना का प्राण है। मन पर ज्यों ही ध्यान दिया जाता है, प्रायः यह लुप्त हो जाता है।

यदि आप भावना में बैठे हुए हैं और श्वास के आने-जाने या पेट के उठने-गिरने पर ध्यान लगाए हुए हैं, उसी समय कोई 'कल्पना' आयी, तत्काल मन-ही-मन 'कल्पना आयी, कल्पना आयी' देखें, कोई 'विचार' आया तो मन-ही-मन विचार आया, विचार आया 'ध्यान करें, यदि 'चिन्तन' आया तो मन-ही-मन ध्यान करें, 'चिन्तन आया, चिन्तन आया', कोई इच्छा जगी तो मन-ही-मन ध्यान करें, 'इच्छा जगी, इच्छा जगी', किसी प्रश्न की गुत्थी समझ में आते ही 'समझ में आयी, समझ में आयी', मन-ही-मन अवलोकन करें, उनमें उलझें नहीं। 

मैं विचार कर रहा हूँ, मैं कल्पना कर रहा हूँ मैं इच्छा कर रहा हूँ ऐसा नहीं। उसमें अपने 'मैं' को मत सुनिये। मेरी कल्पना, मेरा विचार, मेरी इच्छा, मेरी समझ - ऐसा भी नहीं। 'मैं' और 'मेरा' इस प्रक्रिया में उलझें नहीं, फंसे नहीं। तटस्थ होकर आने वाले विचार, कल्पना, इच्छा, संकल्प को देखते रहें और मन ही-मन उनके आने का ध्यान करते रहें। 

ध्यान करते ही वे या तो ढहकर या गलकर स्वयमेव गायब हो जायेंगे और आप अपने साधन-पथ पर निश्चिन्त निरापद बेखटके बढ़ते जाएंगे। चिन्तन में धैर्य की बहुत आवश्यकता पड़ती है। यदि कोई धैर्यपूर्वक अनुभूतियों को सहन नहीं कर सकता और बार-बार अपनी मुद्रा को बदलता रहता है तो समाधि-प्राप्ति की आशा नहीं की जा सकती।

चूँकि एक ही आसन से देर तक ध्यान में बैठना होता है, यह सम्भव है कि शरीर में थकान का या अंगों में जकड़न का अनुभव हो। ऐसी अवस्था में जहाँ थकान का बोध हो रहा है वहाँ ध्यान ले जाकर 'थका, थका' या जकड़न, जकड़न' का ध्यान करे- स्वाभाविक रूप में न तो बहुत धीरे-धीरे, न झटके में। ऐसा करते ही थकान या जकड़न का भाव स्वयं ही धीरे-धीरे गायब हो जाएगा। 

ऐसा भी हो सकता है कि वह थकान या जकड़न बढ़ जाए। ऐसी अवस्था में साधक चाहने लगता है कि आसन बदल दिया जाय और तब उसे मन-ही-मन अवलोकन करना चाहिये 'चाह रहा हूँ, चाह रहा हूँ' और तब अपना आसन धीरे-धीरे साथ ही प्रत्येक स्थिति का क्रमशः अवलोकन करते हुए शनैः शनैः बदलना चाहिये। धीरे-धीरे प्रत्येक स्थिति की बारीक-से-बारीक बात का अवलोकन करना चाहिये। 

जब अपना आसन बदलकर सुस्थिर बैठना हो तो पुनः श्वास के आने-जाने या पेट के उठने-गिरने पर ध्यान जमा दे। यदि शरीर में कहीं गर्मी का बोध हो रहा हो तो उस स्थान पर 'गरम, गरम' का ध्यान करते ही गर्मी समाप्त हो जायेगी। यदि शरीर के किसी भाग में खुजली उठ रही है तो उस स्थान विशेष पर मन को टिकाकर 'खुजला रहा हूँ, खुजला रहा हूँ का ध्यान करे, न तो बहुत धीरे धीरे, न बहुत जल्दी-जल्दी यदि वैसा करते खुजली अपने-आप मिट जाय तो पुनः श्वास के आने-जाने या पेट के उठने-गिरने पर अपना ध्यान टिका दें। 

यदि ऐसा अनुभव हो कि खुजली जा नहीं रही है बल्कि बढ़ती हो जा रही है और असह्य हो रही है तथा वह उसे खुजलाना ही चाहता है तो उसे अपनी इस इच्छा का अवलोकन करे- 'चाहता हूँ, चाहता हूँ और बहुत धीरे-धीरे अपना हाथ उठाकर उस स्थान को खुजला ले। परंतु प्रत्येक स्थिति का सावधानी के साथ ध्यान करते हुए ही हाथ हटा लें। फिर श्वास के आने-जाने या पेट के उठने-गिरने पर ध्यान केंद्रित कर लें।

भावना के समय यदि शरीर के किसी भाग में दर्द का अनुभव हो रहा हो तो मन को उस स्थान विशेष में टिकाकर 'दर्द हो रहा है, दर्द हो रहा है, 'पीड़ा हो रही है, पीड़ा हो रही है', 'कष्ट हो रहा है, कष्ट हो रहा है', का अवलोकन करें। 

इसी प्रकार यदि थकान का अनुभव हो रहा है तो 'थका, थका' सिर में चक्कर आ रहा है तो 'चक्कर आ रहा है, चक्कर आ रहा है।' ऐसा करते ही यह प्रतीत होगा कि दर्द, पीड़ा या थकान अथवा सिर का चक्कर सब गायब हो गया। 

ऐसा भी हो सकता है कि दर्द बढ़ जाए तो धैर्य के साथ उसे अवलोकन करते रहें, घबराएं नहीं। यदि थोड़ी देर अपनी भावना को बनाए रखें तो दर्द अवश्य मिट जाएगा। परंतु फिर भी यदि दर्द नहीं जा रहा है और असह्य हो रहा है तो वहाँ से ध्यान हटाकर श्वास प्रश्वास के आने-जाने या पेट के उठने-गिरने पर जमा दे।

कभी-कभी समाधि में थोड़ी प्रगति होने के बाद यह अनुभव होता है कि असह्य पीड़ा होने लगी है या ऐसा लगता है जैसे दम घुट रहा हो या कोई छूरी चुभो रहा है या सुई चुभो रहा है या शरीर पर छोटे छोटे कई कीड़े घूम रहे हैं। कभी-कभी जोर की खुजलाहट होगी, घोर सर्दी या भयंकर गर्मी का बोध होगा। जैसे ही अपना ध्यान बंद कर दें, ये अनुभव भी अपने आप ही समाप्त हो जायेंगे। 

परंतु फिर जैसे ही ध्यान करने पर ऐसे बोध फिर आ जुटेंगे। सच तो यह है कि ये कष्ट-बोध न तो कुछ महत्त्वपूर्ण होते हैं और न कोई बीमारी ही है। ये तो शरीर में पहले से ही विद्यमान रहते हैं। चूँकि हम कई और भी महत्त्वपूर्ण कार्यों में संलग्न होते हैं, ये छोटे-छोटे दोष छिपे पड़े रहते हैं। ध्यान के समय ये जाग उठते हैं; क्योंकि मन की शक्ति प्रबल हो जाती है। यदि अपने ध्यान में संलग्न रहें तो साधक निश्चय ही इन अप्रिय बोधों पर विजयी होगा और तब फिर ये अपना प्रभाव नहीं डाल पाएंगे।

ध्यान जैसे-जैसे प्रगाढ़ होता जायगा तो कभी कभी गुदगुदी का अनुभव होगा या रीढ़ के भीतर से अथवा सारे शरीर में एक शीतल धारा के प्रवाह का अनुभव करेगा। यह और कुछ नहीं प्र प्रीतिका प्रवाह है, जो ध्यान की सफल प्रगति में होता ही है। ध्यान में बैठने पर हल्की आवाज से भी चमत्कृत हो जाएगा। 

इसका कारण यह है कि अब स्पर्शानुभूति का विशेष अनुभव होगा। यदि ध्यान में शरीर की स्थिति बदलने की इच्छा हो तो बदलने की प्रत्येक अवस्था को मन-ही मन देखते जायँ और धीरे-धीरे सारी प्रक्रिया के एक-एक गतिविधि का अवलोकन करता हुआ शरीर के अंगों को सुविधानुसार यथारुचि बदल ले। 

यह बहुत ही धीरे-धीरे होना चाहिए ताकि ध्यान में उस कारण किसी प्रकार का विघ्न या विक्षेप न आये। यदि नींद आने लगे तो 'नींद आ रही है, नींद आ रही है। यदि आँखें झपकने लगे तो 'झपक रही हैं, झपक रही है', ध्यान करे। 

अपने ध्यान में एकाग्रता सिद्ध कर लेने पर महसूस होगा कि नींद या आँखें झपकने की स्थिति का ध्यान करते ही नींद या झपकी अपने-आप समाप्त हो जाएगी और तुरंत एक विचित्र ताजगी का अनुभव होगा। फिर तुरंत श्वास के आने-जाने या पेट के उठने-गिरने पर अपना ध्यान केंद्रित कर लें। यदि नींद या झपकी पर विजय नहीं प्राप्त हो पाये तो भी उसे अपने ध्यान को चालू रखना चाहिए, जब तक कि नींद न आ जाये।

नींद में किसी प्रकार का चिंतन या ध्यान संभव नहीं है। जागते ही जागने के प्रथम क्षण से स्मृति का अभ्यास शुरू कर दे– 'जाग रहा हूँ, जाग रहा हूँ' आरम्भ में स्मृति का अभ्यास करना कठिन होगा- जिस क्षण उसे याद आ जाए तभी से शुरू कर दे। 

उदाहरण के लिये जिस क्षण चिन्तन का ध्यान आये, 'चिंतन कर रहा हूँ, चिंतन कर रहा हूँ और फिर वह श्वास आने-जाने या पेट के उठने-गिरने पर ध्यान टीका दे। आरम्भ में कई बातें छूट जाएगी, परंतु इससे विचलित नहीं होना चाहिए। अपने उद्देश्य की सिद्धि में, अभ्यास में पूर्णतः तत्पर रहना चाहिए। जैसे-जैसे अभ्यास बढ़ता जाएगा, छूट कम होती जाएगी और आगे बढ़ने पर अधिक विस्तार में ध्यान करते रहें।

एक व्यक्ति ज्यों ही कोई ध्वनि सुनता है तो मुड़कर उस दिशा में देखता है जहाँ से ध्वनि आ रही है। यह धीर व्यक्ति के समान व्यवहार नहीं है। एक बहरा व्यक्ति शांत ढंग से व्यवहार करता है। वह किसी बातचीत पर ध्यान नहीं देता; क्योंकि वह उन्हें सुनता नहीं। 

इसी तरह किसी भी अनावश्यक बातचीत पर ध्यान नहीं देना चाहिए, न तो किसी बातचीत को जानबूझकर मन लगाकर सुनना चाहिए। यह ध्यान रखना चाहिये कि एकाग्रचित्त होकर चिंतन करना ही एकमात्र कर्तव्य है। देखी-सुनी जाने वाली दूसरी वस्तुओं से उसका कोई सम्बन्ध नहीं है। ध्यान नहीं देना चाहिए। जब कोई दृश्य दिख जाए तो उसे तुच्छ समझ कर टाल जाना चाहिए।

ध्यान में प्रगति:

एक दिन और एक रात इस अभ्यास कर अनन्तर यह अनुभव होगा कि ध्यान विशेष प्रगाढ़ और सघन होता जा रहा है तथा श्वास के आने जाने या पेट के उठने-गिरने पर ध्यान आसानी से केन्द्रित रह सकता है। 

यदि बैठने की स्थिति में है तो पेट के उठने-गिरने और अपने बैठने का भी मन-ही-मन ध्यान करते रहें-उठा, गिरा, बैठा, उठा, गिरा, बैठा। यदि वह लेटे हुए है तो मन-ही-मन ध्यान करे- उठा, गिरा, सोया, उठा, गिरा, सोया। यदि वह इन तीन बिन्दुओं पर एक साथ मन को एकाग्र करने में कठिनाई का अनुभव करे तो श्वास के आने-जाने या पेट के उठने गिरने पर ही ध्यान टिकाये। जब अपने शरीर की किसी क्रिया पर ध्यान लगाए हुए हैं तो सुनने या देखने की क्रिया में संलग्न नहीं होना है। 

श्वास के आने-जाने या पेट के उठने-गिरने पर जब ध्यान है और उसी समय कहीं कोई दृश्य देखने की ओर दृष्टि चली गयी तो तुरंत ध्यान करना चाहिये 'देख रहा हूँ, देख रहा हूँ' और फिर उसे श्वास के आने-जाने या पेट के उठने-गिरने पर ध्यान टिका देना चाहिये। यदि कोई व्यक्ति दृष्टिपथ में आ जाए तो 'देख रहा हूँ, देख रहा हूँ', का दो-तीन बार ध्यान कर ले, फिर श्वास के आने-जाने या पेट के उठने-गिरने पर ध्यान टीका ले। 

यदि कोई ध्वनि शब्द सुनाई दे तो 'सुन रहा हूँ, सुन रहा हूँ', का दो-तीन बार ध्यान कर ले और तब श्वास के आने-जाने या पेट के उठने गिरने पर ध्यान टीका ले। यदि जोर की ध्वनि जैसे कुत्ते के भौंकने, जोर-जोर से बोलने, जोर-जोर से गाने की ध्वनि सुनता है तो 'सुन रहा हूँ, सुन रहा हूँ', दो या तीन बार ध्यान कर ले और तब अपने ध्यान को श्वास के आने-जाने या पेट के उठने-गिरने पर जमा ले। 

यदि उन शब्दों को सुनने में लग जाएंगे तो संभव है कि उन-उन वस्तुओं में उलझ जाएँ और तब फिर श्वास के आने-जाने या पेट के उठने-गिरने पर ध्यान न जम सके। इसी प्रकार मन को क्षुब्ध करने वाले विकार जन्मते और बढ़ते हैं। यदि ऐसे विचार आवे तो तुरंत दो-तीन बार ध्यान करे-विचार कर रहा हूँ, विचार कर रहा हूँ और फिर श्वास के आने-जाने या पेट के उठने-गिरने पर ध्यान टिकाये।

इस प्रशिक्षण में कुछ समय लगा चुकने पर मन में ऐसा भाव उठ सकता है कि यथेष्ट उन्नति नहीं हो रही है और सुस्ती का भाव आ सकता है। ऐसे समय 'सुस्ती, सुस्ती' की भावना करे। इतना ही नहीं, स्मृति, समाधि और ज्ञान में पर्याप्त उन्नति उपलब्ध करने के पूर्व मन में इस ध्यान प्रक्रिया की सच्चाई के बारे में भी संदेह उठ सकता है। 

ऐसी स्थिति में मन ही-मन भावना करें-'संदेहमय, संदेहमय', कभी कभी उत्तम परिणाम की आशा-अपेक्षा भी होगी। ऐसे समय 'आशा कर रहा हूँ, आशा कर रहा हूँ' की भावना करें। कभी-कभी साधना की सफलता पर हर्ष और प्रसन्नता का अनुभव होगा, ऐसे अवसर पर 'प्रसन्न, प्रसन्न' की भावना करें। अपने मन की प्रत्येक अवस्था को सावधानी के साथ देखते रहें और एक एक का ध्यान करते रहें। फिर श्वास के आने-जाने या पेट के उठने-गिरने पर ध्यान टिका लें। 

प्रातः जागने से रात के सोने के समय तक साधना का समय है। इस प्रकार जब तक जागता रहे पूर्णत: सावधान और प्रमाद रहित रहे। इसमें किसी प्रकार की शिथिलता न आने पाये। साधना के परिपक्व हो जाने पर स्वयं अनुभव होगा कि उसे अब नींद की जरूरत नहीं है और रात दिन लगातार साधना चलती रहेगी, अविच्छिन्न और अखण्ड भाव से ।

इस प्रकार रातों-दिन साधना में लगा रहे तो ध्यान इतना जाग्रत, प्रखर और प्रगाढ़ हो जाएगा कि विपश्यना ज्ञान की परम और चरम अवस्था की भी उपलब्धि हो जाएगी। 

- अक्षयबर पाण्डेय


 

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