जिस प्रकार आज पुराणों में वर्णित, पर्वतों आदि के विषय में विद्वानों में मतभेद पाये जाते हैं, उसी प्रकार उनके नामों में भी मतभेद हैं। समुद्र मंथन में जिस पर्वत को मथानी (मथानी) बनाया गया था, आज के कुछ विद्वान् उसे मन्दार पर्वत कहते हैं।
श्रीमद्भागवत, महाभारत आदि पर्व तथा विष्णु पुराण में इसका नाम मन्दार पर्वत बताया गया है-
श्रीमद्भागवत् पुराण 'ततस्ते मन्दरगिरि मोजोत्पाट्य सु दुर्मदाः॥'
महाभारत – ‘मन्थानं मन्दरं कृत्वा' नेत्रं कृत्वा च वासुकिं ॥
विष्णु पुराण - 'मन्थानं मन्दरं कृत्वा नेत्रं कृत्वा च वासुकिम् ॥
मंदिर (मन्दार) पर्वत कहाँ स्थित है तथा वहाँ के रहस्यों, तीर्थों, कुण्डों विशेषकर समुद्र मंथन के फलस्वरूप 14 रत्नों में से निकले एक रत्न शंख कहाँ हैं? इस लेख में प्रस्तुत है-
इस पर्वत की उत्पत्ति सृष्टि के आदिकाल में हुई थी। धर्मग्रंथों में मंदार को कहीं हिमगिरि का ज्येष्ठ भ्राता, तो कहीं सुमेरु पर्वत का अंग माना गया है।
वास्तव में मन्दराचल पर्वत विंध्याचल का ही एक अंग-सा परिलक्षित होता है, क्योंकि दोनों पर्वतों की चट्टानें बिलकुल एक जैसी हैं। इस पर्वत की ऊँचाई लगभग 600 फीट है; जो कि ग्रेनाइट की एक ही चट्टान से निर्मित है। इसका व्यास 400 मील फैला हुआ है।
सामान्यतः आक, धतूरा, स्वर्ग, देवदूत और हाथी को भी मंदार कहते हैं। बिहार के बांका जिले के परगने का नाम भी मंदार है। अतः कुछ लोग इसे ही मंदार पर्वत मानते हैं।
मंदार पर्वत से संबंधित एक कथा ..
मधु और कैटभ नाम के दो दैत्यों से परेशान भगवान् विष्णु का हजारों वर्षों तक युद्ध चलता रहा। इसके फलस्वरूप विष्णु ने कैटभ का वध कर दिया तथा मधु का सिर धड़ से अलग कर दिया। फिर भी दैत्य मधु का धड़ काफी उत्पात मचाता रहा। तब विष्णु ने उसे मंदार पर्वत पर रखकर पैर से दबा दिया। इससे दैत्य मधु का अंत हो गया। मधु का अंत करने के कारण ही विष्णु का एक नाम 'मधुसूदन' हुआ। आज भी मंदार पर्वत की चोटी पर भगवान विष्णु के चरण चिन्ह मौजूद हैं।
जैन धर्म के बारहवें तीर्थंकर वासुपूज्य नाथ का निर्वाण भी इसी ऐतिहासिक पर्वत पर हुआ था। ऐसा जैनियों का विश्वास है। समुद्र मंथन के समय नाग के घर्षण से उत्पन्न चिह्नों को चारों ओर स्पष्ट देखा जा सकता है। ये चिन्ह ऐसे दुर्गम स्थानों पर हैं जहाँ मनुष्यों के पहुँचने की कल्पना तक नहीं की जा सकती।
वर्तमान में पर्वत के ऊपर जाने के लिए चट्टानों को काट-खोदकर 400 से अधिक सीढ़ियां बनी हुई है। सम्भवतः यही समुद्र- मंथन का मंदार (मंदार) पर्वत है ।
समुद्र मंथन से निकला शंख यहीं है इस पर्वत पर कई देवी-देवताओं की मूर्तियाँ और लगभग 100 कुण्ड है। जिनमें शिवकुण्ड, शंखकुण्ड, गोदावरी कुण्ड, सौभाग्य कुण्ड और आकाश कुण्ड प्रमुख हैं।
ऐसी मान्यता है कि समुद्र मंथन के दौरान 14 रत्नों में से एक शंख भी निकला था। वह शंख इसी शंख कुंड में आज भी विद्यमान हैं। इस शंख का अनुमानित वजन 30- 35 मन के करीब आंका गया है।
शंख कुण्ड के बगल से शिखर पर जाने हेतु दो रास्ते हैं - एक विश्वनाथ मंदिर जाते हुए तथा दूसरा कामाख्या कुण्ड के बगल से होकर। इन दोनों मार्गों के बीच एक विशाल घाटी है। इसमें दो प्रसिद्ध कुंड - शिव कुंड और सौभाग्य कुण्ड हैं।
शिव कुंड में भगवान शिव यदा - कदा स्नान किया करते हैं। इन दोनों कुण्डों से कुछ पश्चिम हटकर गोदावरी कुण्ड हैं, जिसके पास शुकदेव मुनि का गुफा - आश्रम आज भी स्थित है। इस आश्रम के ठीक ऊपर शिव, विष्णु, नरसिंह और कलयुग की मूर्तियाँ हैं।
कलयुग की मूर्ति के पास बना वराह कुंड है जहाँ संत मतानुसार वराह भगवान धारणी देवी के साथ नित्य वास करते हैं। इसी पर्वत पर व्यास गुफा, गौतम गुफा, कपिल मुनि गुफा, जैसी असंख्य गुफाओं के साथ-साथ पुराण प्रसिद्ध भारती वन, माधव वन, रेणुका वन, बदरीवन, मालूवन, भ्रष्ट राज्य वन, कमलावन आदि भी हैं। इस पर्वत पर पातालगंगा आज भी रहस्य का केन्द्र बना हुआ है।
ऐसी मान्यता है कि यह सुल्तानगंज (बिहार) में जाकर गंगा से मिली हुई है। पर्वत के दक्षिण भाग में तलहटी से सटा पापहारिणी नामक एक भव्य सरोवर है। इसमें चोलराजा छत्रसेन मकर संक्रांति के दिन स्नान कर चर्मरोग से मुक्त हुए थे। संभवतः तभी से मकर संक्रांति के दिन इस सरोवर में भक्तगण स्नान करते हैं
हर साल 14 जनवरी से एक महीने तक राष्ट्रीय स्तर का मेला लगता है। श्रद्धालुगण पापहारी सरोवर में स्नान कर पर्वत के शिखर पर स्थित भगवान मधुसूदन के चरण चिह्न का दर्शन कर उन्हें अपनी भक्ति निवेदन करते हैं ।
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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