धर्म शास्त्रों में कामना यानी एंबीशन और डिजायर्स के चार भेद बताए गए|
कामनाओं के चार भेद हैं ..
(1). शरीर-निर्वाह मात्र की आवश्यक कामना को पूरा कर दे|
(2). जो कामना व्यक्तिगत एवं न्याययुक्त हो और जिसको पूरा करना हमारी सामर्थ्य से बाहर हो, उसको भगवान को अर्पण करके मिटा दे।
(3). दूसरों की वह कामना पूरी कर दे, जो न्याययुक्त और हितकारी हो तथा जिसको पूरी करने की सामर्थ्य हमारे में हो। इस प्रकार दूसरों की कामना पूरी करने पर हमारे में कामना-त्याग की सामर्थ्य आती है।
(4). उपर्युक्त तीनों प्रकार की कामनाओं के अतिरिक्त दूसरी सब कामनाओं को विचार के द्वारा मिटा दे।
'महाशनो महापाप्मा'- कोई वैरी ऐसा होता है, जो भेंट-पूजा अथवा अनुनय-विनय से शांत हो जाता है, पर यह 'काम' ऐसा वैरी है, जो किसी से भी शांत नहीं होता। इस काम की कभी तृप्ति नहीं होती बुझे न काम अगिनि तुलसी कहुँ, बिषयभोग बहु घी ते ॥
जैसे धन मिलने पर धन की कामना बढ़ती ही चली जाती है; ऐसे ही ज्यों-ज्यों भोग मिलते हैं, त्यों-ही-त्यों कामना बढ़ती ही चली जाती है। इसलिये कामना को 'महासेनः' कहा गया है। कामना ही सम्पूर्ण पाप का कारण है। चोरी, डकैती, हिंसा आदि समस्त पाप कामना से ही होते हैं। इसलिये कामना को 'महापाप्मा' कहा गया है।
कामना उत्पन्न होते ही मनुष्य अपने कर्तव्य से, अपने स्वरूप से और अपने इष्ट-(भगवान) से विमुख हो जाता है और नाशवान संसार के सम्मुख हो जाता है। नाशवान के सम्मुख होने से पाप होते हैं और पापों के फलस्वरूप नरकों तथा नीच योनियों की प्राप्ति होती है।
संयोगजन्य सुख की कामना से ही संसार सत्य प्रतीत होता है और प्रतिक्षण बदलने वाले शरीरादि पदार्थ स्थिर दिखाई देते हैं। सांसारिक पदार्थों को स्थिर मानने से ही मनुष्य उनसे सुख भोगता है और उनकी इच्छा करता है।
सुख-भोग के समय संसार की क्षणभंगुरता की ओर दृष्टि नहीं जाती और मनुष्य भोग को तथा अपने को भी स्थिर देखता है।
जो प्रतिक्षण मर रहा है-नष्ट हो रहा है, उस संसार से सुख लेने की इच्छा कैसे हो सकती है? पर 'संसार प्रतिक्षण मर रहा है' इस जानकारी का तिरस्कार करने से ही सांसारिक सुख भोग की इच्छा होती है।
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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