सभी संसार को स्वप्न मानते हैं तथा इसे कल्पना कहते हैं। परन्तु यह कल्पना किसकी है और यह संसार किसकी नींद में बना है? इस विषय पर विचार नहीं करते हैं। कुछ कहते हैं कि यह संसार जीव की ही कल्पना है। जीव अनादि है, इसको किसी ने बनाया नहीं है। यह तो हमेशा से है तथा इसके ऊपर कोई मालिक नहीं है। सब कुछ अपने आप ही होता है।
"आपे बीज वृक्ष अंकुर, आपे पुष्प फल छाया।
सूर्य किरण प्रकाश आपही, आप ब्रह्म जीव माया।।"
ये कहते हैं कि जीव जड़ और चेतन के संयोग से बना है। जीव का शरीर जड़ अर्थात् माया का है तथा यह समाप्त होता रहता है। जो चेतन है, वह ब्रह्म का अंश है तथा समाप्त नहीं होता है। यह चेतन हमेशा रहने वाला है और यही परमात्मा है। ये इस पर विचार नहीं करते हैं कि यह चेतन कहां से आया है तथा इस माया का घर कहां है?
ये माया को अनादि मानते है और कहते हैं कि यह जीव के साथ हमेशा से रहती है। जब यह रचना करती है तब सगुण साकार हो जाती है और बाद में सब कुछ मिटाकर निर्गुण निराकार हो जाती हैं। इस प्रकार यह आदि भी है और अनादि भी है। शास्त्र तथा संत भी इसकी पुष्टि करते हैं।
"माया आद अनाद की, चली जात अंधेर।
निरगुन सरगुन होए के व्यापक, आय फिरत है फेर।।"
ये यह कहते हैं कि जीव अनादि होने के कारण हमेशा रहता है, परंतु ये इस पर विचार नहीं करते हैं कि जड़ तथा चेतन का मूल अलग-अलग है तथा ये हमेशा से एक साथ नहीं थे। ये यह भी स्वीकार करते हैं कि यह जड़ तथा चेतन की गांठ सतगुरु के ज्ञान के द्वारा खुल जाती है।
अतः पहले इनको अपने इस भ्रम को दूर करना होगा कि जीव अनादि तो है, परंतु जीव को माया का शरीर संसार की रचना के पश्चात मिला है। इनकी यह भ्रांति तभी दूर होगी जब ये जीव के ऊपर, जो सत्ता है उसको जाने। इनका दूसरा भ्रम यह है कि ये जीव के शरीर के साथ जो चेतन है उसी को परमात्मा मानते हैं। यह कहते हैं कि चेतन किसी का अंश नहीं है यह स्वयं परमात्मा है।
"सब किताबों में लिख्या, एक थें भये अनेक।
सो सुकन कोई न केहेवहि, जो इस तरफ है एक।।"
ये यह तो मानते हैं कि परमात्मा को खंडित नहीं किया जा सकता है तथा इसका कोई अंत नहीं है। शास्त्र तथा संत भी उनकी इस बात की पुष्टि करते हैं। अरबों खरबों जीवों के शरीर के साथ जो चेतन है, वे परमात्मा के अंश किस प्रकार हो सकते हैं? इन अरबों खरबों जीवों को परमात्मा किस प्रकार माना जा सकता है? इन खरबों जीवों के चेतन कहाँ से आए हैं ? इनका मूल कहाँ है? इस बात पर ये विचार क्यों नहीं करते हैं?
ये एक से अनेक होने वाले जीव मात्र कल्पना है और इन सभी की रचना स्वप्न में हुई है। स्वप्न तो नींद में बनता है तथा नींद रचना करने वाले के चित्त के अंदर होती है। शास्त्रों ने तथा संतों ने रचना करने वाले को अक्षर पुरुष कहा है। अक्षर पुरुष का दिव्य शरीर है तथा उनका मन (ज्योति स्वरूप) ही इस स्वप्न की रचना करता है। यही प्रत्येक जीवों के शरीर में चेतन के रूप में व्याप्त है, जो मन (ज्योती स्वरूप) का प्रतिबिंबित अंश है। शास्त्रों ने तथा संतो ने इसे भी अनादि कहा है।
"पिंड ब्रह्मांड तब ना हता, नहीं लोक विस्तार।
पुरुष निश्चल एक हता, जिनकी सकल पसार।।"
अतः स्वप्न के जीवों के ऊपर अक्षर पुरुष की सत्ता है, जिसने अपनी नींद में इस स्वप्न रुपी संसार को अपने चित्त में बनाया है।
बजरंग लाल शर्मा
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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