भगवान श्री राम भरत जी से संतों के लक्षण बतलाते कहते हैं-
हुए संतन्ह के लच्छन सुनु भ्राता। अगनित श्रुति पुरान बिख्याता॥
संत असंतन्हि कै असि करनी। जिमि कुठार चंदन आचरनी॥
काटइ परसु मलय सुनु भाई। निज गुन देइ सुगंध बसाई॥
ताते सुर सीसन्ह चढ़त जग बल्लभ श्रीखंड। अनल दाहि पीटत घनहिं परसु बदन यह दंड॥
बिषय अलंपट सील गुनाकर। पर दुख दुख सुख सुख देखे पर॥
सम अभूतरिपु बिमद बिरागी। लोभामरष हरष भय त्यागी॥
कोमलचित दीनन्ह पर दाया। मन बच क्रम मम भगति अमाया॥
सबहि मानप्रद आपु अमानी। भरत प्रान सम मम ते प्रानी॥
बिगत काम मम नाम परायन। सांति बिरति बिनती मुदितायन॥
सीतलता सरलता मयत्री। द्विज पद प्रीति धर्म जनयत्री॥
ए सब लच्छन बसहिं जासु उर। जानेहु तात संत संतत फुर॥
हे भाई! संतों के लक्षण (गुण) असंख्य हैं, जो वेद और पुराणों में प्रसिद्ध है। संत और असंतों की करनी ऐसी है, जैसे कुल्हाड़ी और चंदन का आचरण होता है। हे भाई ! सुनो, कुल्हाड़ी चन्दन को काटती है [क्योंकि उसका स्वभाव या काम ही वृक्षों को काटना है]; किंतु चन्दन [अपने स्वभाववश] अपना गुण देकर उसे (काटने वाली कुल्हाड़ी को) सुगंध से सुवासित कर देता है। इसी गुण के कारण चन्दन देवताओं के सिरों पर चढ़ता है और जगत का प्रिय हो रहा है और कुल्हाड़ी के मुख को यह दंड मिलता है कि उसको आग में जलाकर फिर घन से पीटते हैं।
संत विषयों में लम्पट (लिप्त) नहीं होते, शील और सद्गुणों की खान होते हैं। उन्हें पराया दुःख देखकर दुःख और सुख देखकर सुख होता। वे [सब में, सर्वत्र, सब समय] समता रखते हैं, उनके मन में किसी के प्रति शत्रुता नहीं होती, वे मद से रहित और वैराग्यवान होते हैं तथा लोभ, क्रोध, हर्ष और भय का त्याग किये हुए रहते हैं। उनका चित्त बड़ा कोमल होता है। वे दीनों पर दया करते हैं तथा मन, वचन और कर्म से मेरी निष्कपट (विशुद्ध) भक्ति करते हैं। सबको सम्मान देते हैं, पर स्वयं मान रहित होते हैं।
हे भरत! वे प्राणी (संतजन) मेरे प्राणों के समान हैं। उनको कोई कामना नहीं होती। वे मेरे नाम के परायण होते हैं। शान्ति, वैराग्य, विनय और प्रसन्नता के घर होते हैं उनमें शीतलता, सरलता, सबके प्रति मित्र भाव और ब्राह्मण के चरणों में प्रीति होती है, जो धर्मों को उत्पन्न करने वाली है। हे तात! ये सब लक्षण जिसके हृदय में बसते हों, उसको सदा सच्चा संत जानना।
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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