साकार और निराकार का झगड़ा लंबे समय से है लेकिन इस झगड़े को भगवान श्री कृष्ण भगवत गीता में खत्म कर देते हैं।
श्री कृष्ण कहते हैं कि-
अव्यक्तं मां व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते (ते) अबुद्धयः' अर्थात् जो सदा निराकार रहने वाले मेरे को केवल साकार मानते हैं, वे निर्बुद्धि हैं; क्योंकि वे मेरे अव्यक्त, निर्विकार और निराकार स्वरूप को नहीं जानते।
दूसरे कोई ऐसा अर्थ करते हैं कि '(ये) व्यक्तिमापन्नं माम् अव्यक्तं मन्यन्ते ( ते ) अबुद्धयः' अर्थात् मैं अवतार लेकर तेरा सारथी बना हुआ हूँ- ऐसे में मुझे केवल निराकार मानते हैं, वे निर्बुद्धि हैं; क्योंकि वे मेरे सर्वश्रेष्ठ अविनाशी भाव को नहीं जानते ।
उपर्युक्त दोनों अर्थों में से कोई भी अर्थ ठीक नहीं है। कारण कि ऐसा अर्थ मानने पर केवल निराकार को मानने वाले साकार रूप की और साकार रूप के उपासकों की निंदा करेंगे और केवल साकार मानने वाले निराकार रूप की और निराकार रूप के उपासकों की निंदा करेंगे। यह सब एक देशीयपना ही है।
पृथ्वी, जल, तेज आदि जो महाभूत हैं, जो कि विनाशी और विकारी हैं, वे भी दो-दो तरह के होते हैं स्थूल और सूक्ष्म। जैसे, स्थूल रूप से पृथ्वी साकार है और परमाणु रूप से निराकार है.
जल बर्फ, बूँदें, बादल और भाप रूप से साकार है और परमाणु रूप से निराकार है; तेज (अग्नि तत्त्व) काठ और दियासलाई में रहता हुआ निराकार है और प्रज्वलित होने से साकार है, इत्यादि।
इस तरह से भौतिक सृष्टि के भी दोनों रूप होते हैं और दोनों होते हुए भी वास्तव में वह दो नहीं होती।
साधक संजीवनी में स्वामी रामसुखदास भगवान श्री कृष्ण द्वारा दिए गए ज्ञान को और स्पष्ट करते हुए बताते हैं साकार होने पर निराकार में कोई बाधा नहीं लगती और निराकार होने पर साकार में कोई बाधा नहीं लगती।
फिर परमात्मा के साकार और निराकार दोनों होने में क्या बाधा है ? अर्थात् कोई बाधा नहीं। वे साकार भी हैं और निराकार भी हैं, सगुण भी हैं और निर्गुण भी हैं।
गीता साकार-निराकार, सगुण-निर्गुण दोनों को मानती है। नवें अध्याय के चौथे श्लोक में भगवान ने अपने को 'अव्यक्त मूर्ति' कहा है।
चौथे अध्याय के छठे श्लोक में भगवान ने कहा है कि मैं अज होता हुआ भी प्रकट होता हूँ, अविनाशी होता हुआ भी अंतर्धान हो जाता हूँ और सबका ईश्वर होता हुआ भी आज्ञापालक (पुत्र और शिष्य) बन जाता हूँ।
अतः निराकार होते हुए साकार होने में और साकार होते हुए निराकार होने में भगवान् में किंचिन्मात्र भी अंतर नहीं आता। ऐसे भगवान् के स्वरूप को न जानने के कारण लोग उनके विषय में तरह-तरह की कल्पनाएँ किया करते हैं।
अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत। अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना ॥
'हे भारत! सभी प्राणी जन्म से पहले अप्रकट थे और मरने के बाद अप्रकट हो जाएंगे, केवल बीच में ही प्रकट देखते हैं; अतः इसमें शोक करने की बात ही क्या है ?'
भगवान् मनुष्यों की तरह अव्यक्त से व्यक्त नहीं होते, प्रत्युत अव्यक्त रहते हुए ही व्यक्त होते हैं और व्यक्त होते हुए भी अव्यक्त रहते हैं।
‘परम्’– भगवान् देवताओं की उपासना करने वालों को श्रद्धा भी देते हैं और उनकी उपासना का फल भी देते हैं
यह भगवान का परम अर्थात् पक्षपात रहित भाव है।
‘अव्ययम्’– देवता सापेक्ष अविनाशी (अमर) हैं, सर्वथा अविनाशी नहीं। परन्तु भगवान् निरपेक्ष अविनाशी हैं। उनके समान अविनाशी दूसरा कोई नहीं है और हो भी नहीं सकता।
'अनुत्तमम्'– भगवान् प्राणिमात्र का हित चाहते हैं- यह भगवान का सर्वश्रेष्ठ भाव है। इससे श्रेष्ठ दूसरा कोई भाव हो ही नहीं सकता ।
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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