 Published By:धर्म पुराण डेस्क
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सौ अश्वमेध यज्ञ करने वाला चक्रवर्ती सम्राट किसी मन्वन्तर में इन्द्र होता है। अब तक वर्तमान कल्प के छ: मन्वन्तर व्यतीत हो चुके हैं। यह सप्तम मन्वंतर चल रहा है। इस मन्वन्तर में पुरन्दर देवराज हैं। उनकी पत्नी रात्री दैत्यराज पुलोमा की पुत्री हैं। जयंत और जयन्ती नाम के इनके एक पुत्र और एक कन्या हैं।
देवराज इंद्र वर्षा के अधिपति हैं। वृष्टि से ही लोक का पोषण, जीवन चलता है। वैदिक काल में महेंद्र के निमित्त बृहत् यज्ञ होते थे। श्रुतियों में परमात्मा का नाम इन्द्र तो आया ही है, देवराज इंद्र की भी स्तुतियाँ हैं। ये ऐरावतारूढ या मातलि द्वारा चलाये गये हरित वर्ण के घोड़ों से जुते रथ पर विराजमान हैं।
त्रेता में वानर राज बाली और द्वापर में अर्जुन उन्हीं के अंश से उत्पन्न हुए थे। रावण पुत्र मेघनाद ने युद्ध में उन्हें पराजित किया था। द्वापर में श्रीकृष्ण चन्द्र ने जब उनका यज्ञ बंद करवा दिया, तब रुष्ट होकर सात दिन तक ये प्रलय-वृष्टि करते रहे। भगवान ने गोवर्धन धारण करके उनका दर्द मिटाया।
देवराज इंद्र की आराधना श्रुतियों में अनादि काल से चली आती है। इन्होंने दीर्घकाल तक ब्रह्मचर्य पूर्वक रहकर ब्रह्माजी से ब्रह्म ज्ञान प्राप्त किया था।
भारतीय अध्यात्म ज्ञान मानव-जगत में इन्ही की कृपा से आया। यही आयुर्वेद के आदि उपदेष्टा हैं। भगवान धन्वन्तरि इन्हीं से आयुर्वेद प्राप्त किया था। अनेक शास्त्रों का प्रवर्तन देवराज द्वारा जगत् में हुआ है।
हमारी संस्कृति अधिदेव पर अधिष्ठित है। उसमें देवराज का पद अत्यन्त गौरवमय है।
 
 
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