 Published By:धर्म पुराण डेस्क
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परिवर्तनशील संसार और चिन्मय सत्ता का वास्तविक स्वरूप ..
हम परिवर्तनशील संसार में रहते हैं। परिवर्तन संसार का नियम है इसलिए हम बार-बार पैदा होते हैं मरते हैं। पैदा होने के बाद बढ़ते हैं उम्र बढ़ने के साथ-साथ बुजुर्ग होते हैं और एक समय बाद शरीर छोड़ देते हैं|
वर्तमान पल में हम जैसे हैं अगले पल में हम वैसे नहीं रहेंगे। इसी परिवर्तन से हम एक समय बाद ऊब जाते हैं और चिन्मय रूप में बदलना चाहते हैं। आखिर यह चिन्मय स्वरूप क्या है जिनमें सत्ता क्या है इसके बारे में स्वामी रामसुखदास जी कहते हैं।
भाव— एक विभाग बदलने वाले संसार का है और एक विभाग न बदलने वाली चिन्मय सत्ता का है। जो अनादिकाल से जन्म-मरण के प्रवाह में पड़ा हुआ है, वही यह जीव-समुदाय बार-बार उत्पन्न और लीन होता है। ब्रह्म के दिन और रात के बीच में भी जीव निरन्तर जन्म लेता और मरता रहता है।
तात्पर्य है कि जो बार-बार उत्पन्न और लॉन होता है, वह संसार है और जो वही रहता है (जो पहले सर्गावस्था में था), वह जीव का असली स्वरूप अर्थात चिन्मय सत्ता है, जो परमात्मा का साक्षात अंश है। ब्रह्माजी के कितने ही रात-दिन बीत जाये, पर जीव स्वयं वही-का-वही रहता है।
चिन्मय सत्ता (चितिशक्ति) अर्थात स्वयं में स्वीकार अथवा अस्वीकार करने की सामर्थ्य है। इस सामर्थ्य का दुरुपयोग करने से अर्थात जड़ता को स्वीकार करने से ही वह जन्मता-मरता है - 'कारणं गुण संगोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु' (गीता 13/21)।
यदि वह इस सामर्थ्य का दुरुपयोग न करे तो उसका जन्म-मरण हो ही नहीं सकता। साधक संजीवनी कहती है - अतः जीव का खास पुरुषार्थ है— जड़ता को स्वीकार न करना अर्थात अपने स्वरूप में स्थित होना अथवा अपने अंशी भगवान के शरण होना।
जड़ता में अर्थ- देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, क्रिया, अवस्था, परिस्थिति में परिवर्तन होता है, अपने में (अपने होनेपन में) कभी परिवर्तन नहीं होता - यह मनुष्य मात्र का अनुभव है। परन्तु ऐसा अनुभव होते हुए भी मनुष्य सुखासक्ति के कारण जड़ता से बंधा रहता है, जिससे उसको अपने सहज स्वरूप का अनुभव नहीं होता, प्रत्युत वह पशु-पक्षी आदि की तरह अपने स्वरूप को भूला रहता है।
'अवशः' अपरा प्रकृति के साथ संबंध जोड़ने से जीव परवश, पराधीन हो जाता है—'भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात्' (गीता 9/8)। अतः प्रकृति के साथ माना हुआ सम्बन्ध टूटने पर यह स्वाधीन अर्थात् मुक्त हो जाता है।
हमारी सत्ता अपरा प्रकृति के अर्थात वस्तु, व्यक्ति और क्रिया के अधीन नहीं है। प्रत्येक वस्तु की उत्पत्ति और विनाश होता है, प्रत्येक व्यक्ति का जन्म (संयोग) और मरण (वियोग) होता है तथा प्रत्येक क्रिया का आरम्भ और अन्त होता है। परन्तु इन तीनों - (वस्तु, व्यक्ति और क्रिया-) को जानने वाली हमारी चिन्मय सत्ता-होनेपन का कभी उत्पत्ति-विनाश, जन्म-मरण (संयोग-वियोग) और आरम्भ-अंत नहीं होता।
यह सत्ता नित्य-निरंतर स्वतः ज्यों- की-त्यों रहती है— 'भूत ग्रामः स एवायं।' इस सत्ताका कभी अभाव नहीं होता- 'नाभावो विद्यते सतः' (गीता 2/16)। इस सत्ता में स्वतः - स्वाभाविक स्थिति के अनुभव का नाम ही मुक्ति (स्वाधीनता) है।
 
 
                                मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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