Published By:धर्म पुराण डेस्क

गुरु कौन हैं? गुरु क्या करते हैं? कबीर ने बताया गुरु धर्म का मर्म 

गुरु मुरति आगे खडी, दुतिया भेद कछु नाहिं।

उन्ही कूं परनाम करि, सकल तिमिर मिटि जाही।।

।। हिन्दी मे अर्थ ।।

आत्म ज्ञान से पूर्ण संत कबीर जी कहते हैं – हे मानव, साकार रूप में गुरु की मूर्ति तुम्हारे सम्मुख खडी है इसमें कोई भेद नहीं।

गुरु को प्रणाम करो, गुरु की सेवा करो। गुरु दिये ज्ञान रुपी प्रकाश से अज्ञान रुपी अंधकार मिट जायेगा।

गुरु को सिर पर राखिये चलिये आज्ञा माहिं। कहैं कबीर ता दास को, तीन लोक भय नाहीं।।

गुरु को सिर पर राखिये चलिये आज्ञा माहिं।

कहैं कबीर ता दास को, तीन लोक भय नाहीं।।

।। हिन्दी मे इसके अर्थ ।।

गुरु को अपने सिर का गज समझिये अर्थात, दुनिया में गुरु को सर्वश्रेष्ठ समझना चाहिए क्योंकि गुरु के समान अन्य कोई नहीं है।

गुरु कि आज्ञा का पालन सदैव पूर्ण भक्ति एवं श्रद्धा से करने वाले जीव को संपूर्ण लोकों में किसी प्रकार का भय नहीं रहता । गुरु की परम कृपा और ज्ञान बल से निर्भय जीवन व्यतीत करता है।

गुरु कुम्हार शिष कुंभ है, गढि गढि काढैं खोट। अंतर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट।।

अंतर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट।।

।। हिन्दी मे इसके अर्थ ।।

संसारी जीवों को सन्मार्ग की ओर प्रेरित करते हुए शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं- गुरु कुम्हार है और शिष्य मिट्टी के कच्चे घडे के समान है।

जिस तरह घडे को सुंदर बनाने के लिए अंदर हाथ डालकर बाहर से थाप मारता है ठीक उसी प्रकार शिष्य को कठोर अनुशासन में रखकर अंतर से प्रेम भावना रखते हुए शिष्य की बुराइयों को दूर करके संसार में सम्मानित बनाता है।

गुरु शरणागति छाड़ि के, करै भरोसा और। सुख संपत्ति को कह चली, नहीं नरक में ठौर।।

गुरु शरणागति छाड़ि के, करै भरोसा और।

सुख संपत्ति को कह चली, नहीं नरक में ठौर।।

।। हिन्दी मे इसके अर्थ ।।

संत जी कहते हैं कि जो मनुष्य गुरु के पावन पवित्र चरणों को त्याग कर अन्य पर भरोसा करता है।

उसके सुख संपत्ति की बात ही क्या, उसे नरक में भी स्थान नहीं मिलता।

गुरु पारस को अन्तरो, जानत हैं सब संत। वह लोहा कंचन करे, ये करि लेय महंत।।

गुरु पारस को अन्तरो,  जानत हैं सब संत।

वह लोहा कंचन करे, ये करि लेय महंत।।

।। हिन्दी मे इसके अर्थ ।।

गुरु और पारस के अंतर को सभी ज्ञानी पुरुष जानते हैं। पारस मणि के विषय जग विख्यात है कि उसके स्पर्श से लोहा सोने का बन जाता है।

किन्तु गुरु भी इतने महान हैं कि अपने गुण-ज्ञान में ढालकर शिष्य को अपने जैसा ही महान बना लेते हैं।

गुरु सों ज्ञान जु लीजिए, सीस दीजिए दान। बहुतक भोंदू बहि गये, राखि जीव अभिमान।।

गुरु सों ज्ञान जु लीजिए, सीस दीजिए दान।

बहुतक भोंदु बहि गये, राखि जीव अभिमान।।

।। हिन्दी मे इसके अर्थ ।।

सच्चे गुरु की शरण में जाकर ज्ञान-दीक्षा लो और दक्षिणा स्वरूप अपना मस्तक उनके चरणों में अर्पित कर दो अर्थात अपना तन मन पूर्ण श्रद्धा से समर्पित कर दो।

“गुरु-ज्ञान की तुलना मे आपकी सेवा समर्पण कुछ भी नहीं है” ऐसा न मानकर बहुत से अभिमानी संसार के माया-रुपी प्रवाह मे बह गये। उनका उद्धार नहीं हो सका।

गुरु महिमा गावत सदा, मन राखो अति मोद। सो भव फिर आवै नहीं, बैठे प्रभू की गोद।।

गुरु महिमा गावत सदा, मन राखो अति मोद।

सो भव फिर आवै नहीं, बैठे प्रभू की गोद।।

।। हिन्दी मे इसके अर्थ ।।

जो प्राणी गुरु की महिमा का सदैव बखान करता फिरता है और उनके आदेशों का प्रसन्नता पूर्वक पालन करता है उस प्राणी का पुनः इस भव बन्धन रुपी संसार में आगमन नहीं होता।

संसार के भव चक्र से मुक्त होकर बैकुंठ लोक को प्राप्त होता है।

गुरु गोविंद करि जानिए, रहिए शब्द समाय। मिलै तो दण्डवत बन्दगी , नहीं पल पल ध्यान लगाए।।

गुरु गोविंद करि जानिए, रहिए शब्द समाय।

मिलै तो दण्डवत बन्दगी, नहीं पल पल ध्यान लगाए।।

।। हिन्दी मे इसके अर्थ ।।

ज्ञान के प्रकाश का विस्तार करते हुए संत कबीर कहते हैं – हे मानव। गुरु और गोविंद को एक समान जाने। गुरु ने जो ज्ञान का उपदेश किया है उसका मनन करे और उसी क्षेत्र में रहें।

जब भी गुरु का दर्शन हो अथवा न हो तो सदैव उनका ध्यान करें जिससे तुम्हें गोविंद दर्शन करणे का सुगम (सुविधाजनक) मार्ग बताया।

गुरु को मानुष जानते, ते नार कहिये अंध। होय दुखी संसार में, आगे जम की फन्द।।

गुरु को मानुष जानते, ते नार कहिये अंध।

होय दुखी संसार में, आगे जम की फन्द।।

।। हिन्दी मे इसके अर्थ ।।

कबीरदास जी ने सांसारिक प्राणियों को ज्ञान का उपदेश देते हुए कहा है कि जो मनुष्य गुरु को सामान्य प्राणी (मनुष्य) समझते हैं उनसे बडा मूर्ख जगत में अन्य कोई नहीं है।

वह आँखो के होते हुए भी अंधे के समान है तथा जन्म-मरण के भव-बंधन से मुक्त नहीं हो पाता।

गुरु समान दाता नहीं, याचक सीष समान। तीन लोक की सम्पदा, सो गुरु दिन्ही दान।।

गुरु समान दाता नहीं, याचक सीष समान।

तीन लोक की सम्पदा, सो गुरु दिन्ही दान।।

।। हिन्दी मे इसके अर्थ ।।

संपूर्ण संसार में गुरु के समान कोई दानी नहीं है और शिष्य के समान कोई याचक नहीं है।

ज्ञान रुपी अमृतमयी अनमोल संपती गुरु अपने शिष्य को प्रदान करके कृतार्थ करता है और गुरु द्वारा प्रदान की जाने वाली अनमोल ज्ञान सुधा केवळ याचना करके ही शिष्य पा लेता है।

गुरु बिन ज्ञान न उपजै, गुरू बिन मिलै न मोष। गुरु बिन लखै न सत्य को, गुरु बिन मैटैं न दोष।।

गुरु बिन ज्ञान न उपजै, गुरू बिन मिलै न मोष।

गुरु बिन लखै न सत्य को, गुरु बिन मैटैं न दोष।।

।। हिन्दी मे इसके अर्थ ।।

कबीर दास जि कहते है – हे सांसारिक प्राणियों। बिना गुरु के ज्ञान का मिलना असंभव है। तब टतक मनुष्य अज्ञान रूपी अंधकार में भटकता हुआ मायारूपी सांसारिक बन्धनों में जकड़ा रहता है जब तक कि गुरु कि कृपा नहीं प्राप्त होती।

मोक्ष रुपी मार्ग दिखाने वाले गुरु हैं। बिना गुरु के सत्य एवं असत्य का ज्ञान नहीं होता। उचित और अनुचित के भेद का ज्ञान नहीं होता फिर मोक्ष कैसे प्राप्त होगा ? अतः गुरु की शरण में जाओ। गुरु ही सच्ची राह दिखाएंगे।

गुरु गोविन्द दोऊ एक हैं, दूजा सब आकार। आपा मैटैं हरि भजै, तब पावै दीदार।।

गुरु गोविन्द दोऊ एक हैं, दूजा सब आकार।

आपा मैटैं हरि भजै, तब पावै दीदार।।

।। हिन्दी मे इसके अर्थ ।।

गुरु और गोविंद दोनो एक ही हैं केवळ नाम का अंतर है।  गुरु का बाह्य(शारीरिक) रूप चाहे जैसा हो किन्तु अंदर से गुरु और गोविंद में कोई अंतर नही है।

मन से अहंकार की भावना का त्याग करके सरल ओऊ सहज होकर आत्म ध्यान करने से सद्गुरु का दर्शन प्राप्त होगा। जिससे प्राणी का कल्याण होगा। जब तक मन में मैलरूपी “माई और तू” की भावना रहेगी तब तक दर्शन नहीं प्राप्त हो सकता।

गुरु गोविंद दोऊ खडे, काके लागुं पांय। बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो बताय।।

गुरु गोविंद दोऊ खडे, काके लागुं पांय।

बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो बताय।।

।। हिन्दी मे इसके अर्थ ।।

गुरु और गोविंद (भगवान) दोनो एक साथ खडे हो तो किसे प्रणाम करना चाहिये – गुरु को अथवा गोविंद को।

ऐसी स्थिति में गुरु के श्रीचरणों में शीश झुकाना उत्तम है जिनके कृपा रुपी प्रसाद से गोविन्द का दर्शन प्राप्त करने का सौभाग्य हुआ।

 

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