Published By:बजरंग लाल शर्मा

तुम्हारा कौन है...   

तुम्हारा कौन है...                

हे जीव ! इस संसार में तुम्हारा कौन है? जो यह शरीर तुम्हारे पास में है, क्या यह तुम्हारा है? जिस घर में तुम रहते हो क्या यह घर तुम्हारा है? जिस परिवार के सदस्यों के साथ तुम रहते हो क्या वे सब तुम्हारे हैं?                 

जिस माता-पिता ने तुम्हें जन्म दिया क्या वे तुम्हारे हैं? जिसको तुम अपने पति या पत्नी के रूप में मानते हो क्या वे तुम्हारे हैं?              

तुम्हारा वही है जो हमेशा तुम्हारे साथ रहता है। जिसको तुम अपना कहते हो ये सारे मिटने वाले हैं, सिर्फ एक तुम ही हो जो नहीं मिटने वाले हो। इस संसार में तुम्हारा कोई नहीं है।                 

यह संसार, यह शरीर, यह घर, ये परिवार के सदस्य, माता-पिता तथा पति - पत्नी सभी  मिटने वाले हैं। इनमें कोई भी तुम्हारा नहीं है, तुम तो अविनाशी हो, अमर हो। यह शरीर बदलता रहता है परंतु तुम नहीं बदलते हो। पता नहीं तुम अब तक कितने जन्म ले चुके हो।      

प्रत्येक जन्म में जीव पता नहीं कितने संबंध स्थापित करता है और सभी को अपना अपना कहने लगता है, लेकिन वास्तविकता यह है कि इस जीव का कोई भी अपना नहीं है। इस जीव का जो अपना है उसे जीव जानता नहीं है, उसको जानने के लिए कोई प्रयास नहीं करता है।

इस नश्वर संसार की रचना के पूर्व यह जीव अपने स्वामी अक्षर पुरुष के धाम में उनके चित्त में कल्पना रूपी बीज के रूप में था। वहां इसके पास शरीर नहीं था, अक्षर ब्रह्म ने जब यह संसार रचा तो जीव को माया का शरीर दिया तथा चेतन के रूप में अपने मन के अंश का एक कतरा देकर इसको खड़ा करके कर्म रूपी बंधन के अंदर डाल दिया।                       

जीव की रचना मोह एवं अहंकार के द्वारा हुई है, इसके बीज  में ही मोह तथा अहंकार है तो जीव  मोह एवं अहंकार को किस प्रकार छोड़ सकता है? इस मोह के कारण ही संसार को वह अपना अपना कहता है तथा अहंकार  के परदे के कारण अपने स्वामी को तथा अपने घर को भूल गया है ।                 

इस जीव के तथा स्वामी के बीच में मोह एवं अहंकार का परदा है। जब  जीव सतगुरु के ज्ञान के द्वारा अपने विवेक को जाग्रत कर लेता है, तब वह इस माया के मोह एवं अहंकार रूपी परदे को काट सकता है। फिर अपने स्वामी, अपने घर और अपने स्वरूप को पहचान सकता है।                 

परमात्मा को प्राप्त करने के लिए मानव शरीर प्रथम साधन है। सतगुरु का परम ज्ञान दूसरा साधन है तथा तीसरा साधन दृष्टा आत्मा है जो मानव शरीर के साथ ही अपने स्वामी की कृपा के रूप में जुड़ी रहती है। यह जीव उस सत्य आत्मा की डोर पकड़कर इस भवसागर के पार अपने स्वामी से मिल सकता है।

बजरंग लाल शर्मा


 

धर्म जगत

SEE MORE...........