जैसे महर्षि अत्रि अपने नाम के अनुसार त्रिगुणातीत थे वैसे ही अनसूया भी असूया रहित थीं। इन दम्पति को जब ब्रह्मा ने आज्ञा की कि सृष्टि करो तब उन्होंने सृष्टि करने के पहले तपस्या करने का विचार किया और बड़ी घोर तपस्या की। इनके तप का लक्ष्य संतानोत्पादन नहीं था बल्कि इन्हीं आँखों से भगवान का दर्शन प्राप्त करना था।
इनकी श्रद्धापूर्वक दीर्घकाल की निरंतर साधना और प्रेम से आकृष्ट होकर ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीनों ही देवता प्रत्यक्ष उपस्थित हुए। उस समय ये दोनों उनके चिन्तन में इस प्रकार तल्लीन थे कि उनके आने का पता तक न चला।
जब उन्होंने ही इन्हें जगाया तब ये उनके चरणों पर गिर पड़े, किसी प्रकार सम्हलकर उठे और गदगद वाणी से उनकी स्तुति करने लगे। इनके प्रेम, सचाई और निष्ठा को देखकर उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई और उन्होंने वरदान माँगने को कहा। इन दंपति के मन में अब संसारी सुख की इच्छा तो थी ही नहीं, परन्तु ब्रह्मा की आज्ञा थी सृष्टि करने की और वे इस समय सामने ही उपस्थित थे; तब इन्होंने और कोई दूसरा वरदान न मांग कर उन्हीं तीनों को पुत्र रूप में माँगा और भक्ति परवेश भगवान ने उनकी प्रार्थना स्वीकार करके 'एवमस्तु' कह दिया।
समय पर तीनों ही ने इनके पुत्ररूप से अवतार ग्रहण किया। विष्णु के अंश से दत्तात्रेय, ब्रह्मा के अंश से चन्द्रमा और शंकर के अंश से दुर्वासा का जन्म हुआ। जिनकी चरण धूलि के लिये बड़े-बड़े योगी और ज्ञानी तरसते रहते हैं वे ही भगवान अत्रि के आश्रम में बालक बनकर खेलने लगे और दोनों दम्पती उनके दर्शन और वात्सल्य स्नेह के द्वारा अपना जीवन सफल करने लगे।
अनसूया को तो अब कुछ दूसरी बात सूझती ही न थी। अपने तीनों बालकों को खिलाने-पिलाने में ही लगी रहती। उनके बालकों के चरित्र यथास्थान आयेंगे ही। इन्हीं के पातिव्रत्य, सतीत्व से प्रसन्न होकर वनगमन के समय स्वयं भगवान श्री राम सीता और लक्ष्मण के साथ इनके आश्रम पर पधारे और इन्हें जगज्जननी माँ सीता को उपदेश करने का गौरव प्रदान किया।
कहीं-कहीं ऐसी कथा भी आती है कि महर्षि अत्रि ब्रह्मा के नेत्र से प्रकट हुए थे और अनसूया दक्ष प्रजापति की कन्या थी। यह बात कल्पभेद से बन सकती है। अनेकों बार बड़ी-बड़ी आपत्तियों से उन्होंने जगत की रक्षा की है।
पुराणों में ऐसी कथा आती है कि एक बार राहु ने अपनी पुरानी शत्रुता के कारण सूर्य पर आक्रमण किया और सूर्य अपने स्थान से च्युत हो गये, गिर पड़े। उस समय महर्षि अत्रि के तपोबल और शुभ संकल्प से उनकी रक्षा हुई और जगत् जीवन और प्रकाश से शून्य होते-होते बच गया।
तब से महर्षियों ने अत्रि का एक नाम प्रभाकर रख दिया। महर्षि अत्रि की चर्चा वेदों में भी आती है। एक बार जब ये समाधि मग्न थे दैत्यों ने उन्हें उठाकर शत द्वार यंत्र में डालकर अग्नि जला दी और उन्हें नष्ट करने की चेष्टा की, किन्तु उन्हें इस बात का पता तक न था। उस समय भगवत प्रेरणा से अश्विनीकुमारों ने वहाँ पहुँच कर इन्हें बचाया।
उनकी दृष्टि इतनी शीतल, इतनी अमृतमयी और इतनी लोक कल्याणकारी थी कि वहीं मूर्तिमान् होकर आज भी चंद्रमा के रूप में जगत को शीतलता, अमृत और शांति का दान कर रही है। धर्मशास्त्रों में अत्रि संहिता एक प्रधान स्मृति है और हमारे कर्तव्याकर्तव्य का निर्णय करने के लिए वह एक अमूल्य ग्रंथरत्न है। इनके विस्तृत और पवित्र जीवन की चर्चा प्रायः समस्त आर्ष ग्रन्थों में आयी है।
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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