 Published By:धर्म पुराण डेस्क
 Published By:धर्म पुराण डेस्क
					 
					
                    
इनकी बुद्धि इतनी कुशाग्र थी कि ये अपने गुरु की व्याख्या में श्री दोष निकाल दिया करते थे। इसलिए गुरुजी इनसे बड़ी ईर्ष्या करने लगे, यहाँ तक कि वे इनके प्राण लेने तक को उतारू हो गये। उन्होंने रामानुज के सहाध्यायी एवं चचेरे भाई गोविन्द भट्ट से मिलकर यह षड्यंत्र रचा कि गोविन्द भट्ट रामानुज को काशी यात्रा के बहाने किसी घने जंगल में ले जाकर वहीं उनका काम तमाम कर दें। गोविन्द भट्ट ने ऐसा ही किया, परंतु भगवान की कृपा से एक व्याध और उसकी स्त्री ने इनके प्राणों की रक्षा की।
विद्या, चरित्रबल और भक्ति में रामानुज अद्वितीय थे। इन्हें कुछ योग सिद्धियां भी प्राप्त थीं, जिनके बल से इन्होंने कांची नगरी की राजकुमारी को प्रेत बाधा से मुक्त कर दिया। इस सन्दर्भ में बड़ी ही रोचक कथा है, जिससे यह सिद्ध होता है कि मनुष्य को जीवन में जो कुछ प्राप्त होता है वह केवल अपने पुरुषार्थ से ही नहीं प्राप्त होता, बल्कि उसके पीछे ईश्वर कृपा भी होती है।
अतः मनुष्य को जो कुछ भी धन, विद्या आदि के रूप में प्राप्त हो; उसे अन्य में भी बांटते रहना चाहिए। कांची नरेश की राजकुमारी जिस ब्रह्मराक्षस से आविष्ट थी, वह पूर्व जन्म में एक विद्वान् ब्राह्मण था, परंतु उसने जीवन में किसी को भी विद्या दान नहीं दिया, फलस्वरूप ब्रह्मराक्षस हुआ।
राजकुमारी को प्रेतबाधा से मुक्ति दिलाने के लिये अनेक मन्त्रज्ञ बुलाये गये, परन्तु कोई लाभ नहीं हुआ। नरेश का आमन्त्रण पाकर रामानुज के गुरु यादव प्रकाश जी भी शिष्यों के साथ कांची आये। उन्होंने जैसे ही मन्त्र प्रयोग प्रारम्भ किया, तुरंत ही ब्रह्मराक्षस ने राजकुमारी के मुख से कहा- तू जीवन भर मंत्र पाठ करे तो भी मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकता। हाँ, यह तेरा शिष्य रामानुज यदि मेरे मस्तक पर अपना अभय कर रख दे तो मैं इस प्रेतत्व से मुक्त हो जाऊँगा।
श्री रामानुज जी ने आगे बढ़कर जैसे ही राजकुमारी के मस्तक पर भगवान का स्मरण करते हुए हाथ रखा, राजकुमारी स्वस्थ हो गयी और उसे पीड़ित करने वाला ब्रह्मराक्षस उस कुत्सित योनि से मुक्त हो गया।
जब महात्मा आलवन्दार मृत्यु की घड़ियाँ गिन रहे थे, उन्होंने अपने शिष्य के द्वारा रामानुजाचार्य को अपने पास बुलवा भेजा। परंतु रामानुज के श्रीरंगम् पहुँचने के पहले ही आलवन्दार (यामुनाचार्य) भगवान नारायण के धाम में पहुँच चुके थे।
रामानुज ने देखा कि श्री यामुनाचार्य के हाथ की तीन उंगलियां मुड़ी हुई है। इसका कारण कोई नहीं समझ सका। रामानुज तुरंत ताड़ गये कि यह संकेत मेरे लिये है। उन्होंने यह जान लिया कि श्री यामुनाचार्य मेरे द्वारा ब्रह्मसूत्र, विष्णु सहस्रनाम और आलवन्दारों के 'दिव्य प्रबन्धम्' की टीका करवाना चाहते हैं। उन्होंने आलवन्दार के मृत शरीर को प्रणाम किया और कहा- 'भगवन्! मुझे आपकी आज्ञा शिरोधार्य है, मैं इन तीनों ग्रंथों की टीका अवश्य लिखूंगा अथवा लिखवाउंगा।'
रामानुज के यह कहते ही आलवन्दार को तीनों उँगलियाँ सीधी हो गयी। इसके बाद श्रीरामानुज ने आलवन्दार के प्रधान शिष्य पेरियनाम्बिसे विधिपूर्वक वैष्णव-दीक्षा ली और वे भक्ति मार्ग में प्रवृत्त हो गये।
रामानुज गृहस्थ थे; परंतु जब उन्होंने देखा कि गृहस्थ में रहकर अपने उद्देश्य को पूरा करना कठिन है, तब उन्होंने गृहस्थ का परित्याग कर दिया और श्रीरंगम् जाकर यतिराज नामक संन्यासी से संन्यास की दीक्षा ले ली।
श्री रामानुजाचार्य जी के संन्यास ग्रहण की घटना भी बड़ी विलक्षण है, जिससे यह सिद्ध होता है कि साधक के जीवन में आने वाली प्रतिकूलताएँ उसके अध्यात्म-पथ पर आगे बढ़ने के लिये सोपान बनाते हैं। आचार्य श्री की पत्नी इनसे ठीक प्रतिकूल स्वभाव की थीं।
श्रीरामानुजाचार्यजी श्रीयामुनाचार्यजी से वैष्णव दीक्षा लेना चाहते थे, परंतु ऐसा संयोग बनने से पूर्व ही श्री यामुनाचार्य जी महाराज परमधाम को प्रस्थान कर गये। अत: आचार्यश्री ने उनके पांच प्रमुख शिष्यों (श्रीकांचीपूर्णजी, श्रीमहापूर्णजी, श्रीगोष्ठीपूर्णजी, श्रीशैलपूर्णजी और श्रीमालाधरजी) से पाँच उपदेश ग्रहण किये और उन्हें गुरु माना।
एक दिन उन्होंने अपने गुरु श्री कांचीपूर्ण जी महाराज को अपने घर पर भगवान को भोग लगाने और प्रसाद ग्रहण करने के लिये आमंत्रित किया और अपनी पत्नी तंज माम्बा से प्रसाद तैयार करने को कहा। प्रसाद तैयार होने पर जब वे गुरुजी को बुलाने के लिये गये तो गुरुजी किसी अन्य मार्ग से पहले ही उनके घर पहुँच गये।
तंज माम्बा ने उनको प्रसाद तो ग्रहण कराया, पर रसोई में बचा हुआ समस्त भोजन शूद्रों में बांटकर और रसोई धो-साफ कर पुनः भोजन बनाकर रामानुज जी को दिया। रामानुजजी ने जब इसका कारण पूछा तो तंज माम्बा ने कहा कि कांची पूर्ण जी हीन जाति के हैं, अत: उनका उच्छिष्ट मैं आपको नहीं दे सकती। पत्नी के मन में गुरु के प्रति इस प्रकार के कुभाव जानकर रामानुज जी मन ही मन बहुत दुखी हुए।
बात यहीं पर समाप्त हो जाती तो भी ठीक था, परंतु तंज माम्बा ने तो सम्भवतः इनके गुरुओं को अपमानित करना अपना स्वभाव ही बना लिया था। एक दिन उनके दूसरे गुरु श्री महापूर्णाचार्य जी महाराज की पत्नी कुएँ पर जल भरने आई, तंज माम्बा भी जल भर रही थीं, संयोगवश इनके घड़े का कुछ जल छलक कर तंज माम्बा के घड़े में पड़ गया; फिर क्या था|
तंज माम्बा ने गुरुपत्नी पर कुवाच्यों की झड़ी लगा दी। बेचारी गुरुपत्नी कुछ बोल न सकीं और घर जाकर सारी बात श्री महापूर्ण जी महाराज से बतायीं। श्री महापूर्ण जी महाराज ने उन्हें सांत्वना दी और चुपचाप उनको साथ लेकर कांची से श्रीरंगम् आ गये। जब रामानुज को इस बात की जानकारी हुई तो उनके दुख का पारावार न रहा।
इसके बाद घटी एक अन्य घटना ने तो उनके गृहस्थ-जीवन में विराम-चिह्न ही लगा दिया। हुआ यूँ कि एक दिन ये भगवान वरदराज की सेवा में गये हुए थे, उसी समय एक भूखा गरीब ब्राह्मण इनके घर आ गया।
तंज माम्बा ने उसका सत्कार करना तो दूर; ऐसी कड़ी फटकार लगायी कि वे बेचारे ब्राह्मण देवता अपने भाग्य को कोसते हुए उलटे पाँव भाग खड़े हुए। संयोगवश रामानुज जी मार्ग में ही मिल गये और उन्हें सारी बातें ज्ञात हुईं। रामानुज जी दुखी तो बहुत हुए, परंतु ब्राह्मण को समझा-बुझाकर धैर्य धारण कराया और मन-ही-मन संन्यास ग्रहण का निर्णय ले लिया।
उन्होंने ब्राह्मण देवता को बाजार से कुछ फल आदि खरीदकर दिये और कहा कि आप पुनः मेरे घर जाएँ और मेरी पत्नी से कहें कि मैं तुम्हारे मायके से आया हूँ। तुम्हारी बहन का विवाह होने वाला है और तुम्हारे माता-पिता ने यह सामग्री तुम्हें उपहार स्वरूप भेजी है।
यह सुनकर वे आपका बहुत आदर-सत्कार करेंगी। ब्राह्मण ने ठीक वैसा ही किया। तंज माम्बा ने ब्राह्मण का बड़ा आदर-सत्कार किया। थोड़ी देर बाद जब रामानुज आये तो उनसे भी तंज माम्बा ने बहन के विवाह की बात बतायी।
रामानुज जी ने कहा- 'यह तो बहुत आनन्द की बात है, तुम जाना चाहो तो आज ही चली जाओ, उत्सव के दिन मैं भी आ जाऊँगा।' तंज माम्बा खुशी-खुशी मायके के लिये चल दी, इधर रामानुज जी ने संन्यास ग्रहण कर लिया।
इधर इनके गुरु यादवप्रकाश को अपनी करनी पर बड़ा पश्चात्ताप हुआ और वे भी संन्यास लेकर श्री रामानुज की सेवा करने के लिये श्रीरंगम् चले आये। उन्होंने अपना संन्यास आश्रम का नाम गोविन्द योगी रखा।
श्रीरामानुज ने तिरुकोट्टियूरके महात्मा नाम्बिसे अष्टाक्षर मन्त्र (ॐ नमो नारायणाय) की दीक्षा ली थी। नाम्बि ने मंत्र देते समय इनसे कहा था कि 'तुम इस मंत्र को गुप्त रखना।' परंतु रामानुज ने सभी वर्ण के लोगों को एकत्र कर मन्दिर के शिखर पर खड़े होकर सब लोगों को वह मंत्र सुना दिया।
गुरु ने जब रामानुज की इस धृष्टता का हाल सुना, तब वे इन पर बड़े रुष्ट हुए और कहने लगे-'तुम्हें इस अपराध के बदले नरक भोगना पड़ेगा।' श्री रामानुज ने इस पर बड़े विनयपूर्वक कहा कि 'भगवन्! यदि इस महामंत्र का उच्चारण करके हजारों आदमी नरक की यात्रा से बच सकते हैं तो मुझे नरक भोगने में आनन्द ही मिलेगा।'
रामानुज के इस उत्तर से गुरु का क्रोध जाता रहा, उन्होंने बड़े प्रेम से उन्हें गले लगाया और आशीर्वाद दिया। इस प्रकार रामानुज ने अपने समदर्शिता और उदारता का परिचय दिया। श्री प्रिया दास जी महाराज इस घटना का एक कवित्त में वर्णन करते हुए कहते हैं आस्य सो बदन नाम सहस हजार मुख शेष अवतार जानो वही सुधि आई है। गुरु उपदेशी मंत्र कह्यो नीके राखो अन्त्र जपतहि श्यामजू ने मूरति दिखाई है ॥
करुणानिधान कही सब भगवान पावैं चढ़ि दरवाजे सो पुकारयौ धुनि छाई है।
सुनि सीखे लियो यों बहत्तर हि सिद्ध भये नये भक्ति चोज यह रीति लै कै गाई है ॥
यद्यपि श्री रामानुजाचार्य जी उदार और समदर्शी प्रकृति के थे, परंतु आचार-विचार के आप बहुत ही पक्के थे और उसमें जरा-सी भी ढिलाई पसन्द नहीं करते थे। एक बार आप श्री जगन्नाथ स्वामी के दर्शन करने जगन्नाथ पुरी गये।
वहाँ उन्होंने देखा कि पण्डे पुजारी आचार भ्रष्ट हैं। इससे उन्हें बहुत दुख हुआ। इस समस्या के समाधान के लिये वे वहाँ के राजा से मिले और उनका ध्यान पुजारियों की आचार हीनता की ओर आकृष्ट कराया। राजा की सहमति से उन्होंने सभी पण्डे-पुजारियों को हटाकर अपने एक हजार शिष्यों को भगवान श्री जगन्नाथ स्वामी की सेवा पूजा सौंप दी।
इधर पण्डे-पुजारी सेवा-पूजा से हटा दिये जाने के कारण वृत्तिहीन हो गये। वे बेचारे मंदिर के पीछे बैठकर रोने-बिलखने और महाप्रभु से क्षमा प्रार्थना करने लगे। प्रभु तो परम करुणामय हैं ही, उनसे पण्डे पुजारियों का दुःख न देखा गया। उन्होंने स्वप्न में रामानुजाचार्य जी से कहा कि वे पण्डे-पुजारियों को सेवा पूजा करने दें।
इस पर रामानुज जी ने कहा कि वे मंदिर में वेद विरुद्ध शूद्रवत् आचरण करते हैं, अतः मैं उन्हें मंदिर में प्रवेश ही नहीं करने दूंगा। भगवान ने कहा कि वे लोग जब मेरे सम्मुख ताली बजाकर नृत्य करते हैं, तो वह मुझे बहुत ही प्रिय लगता है, अतः मेरी सेवा पूजा का कार्य तुम उन्हें ही दे दो।
परंतु रामानुज उन पण्डों को किसी भी शर्त पर सेवा पूजा का कार्य नहीं सौंपना चाहते थे। करुणामय भगवान को अपने भक्त रामानुजन का हठ भी रखना था और अपने दीन सेवकों पर भी करुणा करनी थी। अतः उन्होंने गरुड़ जी को आज्ञा दी कि रामानुज को शिष्यों समेत श्रीरंगनाथ धाम पहुंचा दो। गरुड़जी ने प्रभु के आज्ञानुसार करने रामानुजाचार्य जी को शिष्यों सहित रात में सोते समय श्री जगन्नाथ धाम से श्री रंगनाथ धाम पहुँचा दिया। प्रातः जगने पर इस आश्चर्यमयी घटना को देख रामानुज जी प्रभु की भक्तवत्सलता का अनुभव कर गदगद हो गये।
भक्तमाल के टीकाकार श्री प्रिया दास जी महाराज इस घटना का दो कवित्तों में इस प्रकार वर्णन हैं-
गये नीलाचल जगन्नाथ जू के देखिये कों देख्यो अनाचार सब पण्डा दूरि किये हैं।
सङ्ग लै हजार शिष्य रङ्ग भरि सेवा करें धरै हिये भाव गूढ़ दरसाय दिये हैं॥
बोले प्रभु बेई आवैं करे अङ्गीकार मैं तो प्यार ही को लेत कभूं औगुन न लिये हैं।
तक दृढ़ कीनी फिरि कहीं नहीं कान दीनी लीनी वेदवाणी विधि कैसे जात छिये हैं॥
जोरावर भक्त सों बसाइ नहीं कही किती रती हूँ न लावैं मन चोज दरसायो है।
गरुड़ कौ आज्ञा दई सोई मानि लई उन शिष्यनि समेत निज देश छोड़ि आयो है ॥
जागिकै निहारे ठौर और ही मगन भये दिये यों प्रकट करि गूढ़ भाव पायो है।
वेई सब सेवा करें श्याम मन सदा हरें धरै सांचो प्रेम हिये प्रभुजू दिखायो है ॥
रामानुज ने आलवन्दार की आज्ञा के अनुसार आलवारों के 'दिव्य प्रबन्धम्' का कई बार अनुशीलन किया और उसे कण्ठ कर डाला। उनके कई शिष्य हो गये और उन्होंने इन्हें आलवन्दार की गद्दी पर बिठाया; परंतु इनके कई शत्रु भी हो गये, उन्होंने कई बार इन्हें मरवा डालने की चेष्टा की।
एक दिन इनके किसी शत्रु ने इन्हें भिक्षा में विष मिला हुआ भोजन दे दिया; परंतु एक स्त्री ने इन्हें सावधान कर दिया और इस प्रकार रामानुज के प्राण बच गये। रामानुज ने आलवारों के भक्ति मार्ग का प्रचार करने के लिये सारे भारत की यात्रा को और गीता तथा ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखे।
वेदान्त सूत्रों पर इनका भाष्य 'श्रीभाष्य' के नाम से प्रसिद्ध है और इनका सम्प्रदाय भी श्री सम्प्रदाय' कहलाता है; क्योंकि इस सम्प्रदाय की आद्य प्रवर्तिका श्री श्री महालक्ष्मी जी मानी जाती हैं। यह ग्रन्थ पहले-पहल काश्मीर के विद्वानों को सुनाया गया था।
इनके प्रधान शिष्य का नाम कूरत्तालवार (कूरेश) था। कूरत्तालवारके पराशर और पिल्लन् नामके दो पुत्र थे। रामानुजने पराशरके द्वारा विष्णुसहस्रनामकी और पिल्लन्से 'दिव्यप्रबन्धम्' की टीका लिखवायी। इस प्रकार उन्होंने आलवन्दारकी तीनों इच्छाओंको पूर्ण किया।
इस समय आचार्य रामानुज मैसूर राज्य के शालग्राम नामक स्थान में रहने लगे थे। वहाँ के राजा भित्ति देव वैष्णव धर्म के सबसे बड़े पक्षपाती थे। आचार्य रामानुज ने वहाँ बारह वर्ष तक रहकर वैष्णव धर्म की बड़ी सेवा की।
सन् 1099 ई० में उन्हें नम्मले नामक स्थान में एक प्राचीन मंदिर मिला और राजा ने उसका जीर्णोद्धार कराकर पुनः नये ढंग से निर्माण करवाया। वह मन्दिर आज भी तिरुनारायणपुर के नाम से प्रसिद्ध है। वहाँ पर भगवान श्रीराम का जो प्राचीन विग्रह है, वह पहले दिल्ली के बादशाह के अधिकार में था।
बादशाह की लड़की उसे प्राणों से भी बढ़कर मानती थी। रामानुज अपनी योग शक्ति के द्वारा बादशाह की स्वीकृति प्राप्त कर उस विग्रह को वहाँ से ले आये और उसकी पुनः तिरुनारायणपुर में स्थापना की।
इस सन्दर्भ में जो कथा प्राप्त होती है, वह भगवान् की अतिशय भक्तवत्सलता की कथा है। हुआ कि भगवान ने आचार्य श्री को स्वप्न में बताया कि मेरी उत्सवमूर्ती बादशाह के यहां दिल्ली में है, उसकी आप स्थापना कीजिये।
भगवान का आदेश मानकर रामानुज जी ने बहुत-से वैष्णवों को लेकर बादशाह का किला घेर लिया। जब बादशाह को यह समाचार मिला तो उसने अपने मंत्री से कहा कि आचार्य श्री को संग्रहालय में ले जाकर सभी मूर्तियों के दर्शन करा दो और जो मूर्ति इनकी इष्ट हो, वह इन्हें प्राप्त करा दो।
रामानुज जी ने संग्रहालय में जाकर दर्शन किये, परंतु उन्हें वह मूर्ति न दिखायी दी, जिसके लिये भगवान ने आदेश दिया था। इससे रामानुज जी बहुत ही चिंतित और दुखी हुए। उन्हें व्याकुल देखकर भगवान ने रात्रि में पुनः स्वप्न में दर्शन दिया और कहा कि मैं शहजादी के पास हूँ और उसकी प्रीति-डोर से बँधा हूँ। वह मुझसे इतना स्नेह करती है कि एक भी क्षण को अलग करना नहीं चाहती।
रामानुज जी ने पुनः बादशाह से भेंट की और उन्हें सारी बात बतलायी। बादशाह ने शहजादी से कहा कि वह उस मूर्ति को इन हिन्दू साधु को सौंप दे और उसके बदले में उसके लिये मणिनिर्मित मूर्ति बनवा दी जाएगी, परंतु शहजादी किसी भी प्रलोभन पर मूर्ति अपने से अलग करने को राजी न हुई। अंत में यह निर्णय हुआ कि मूर्ति सभा के मध्य में रखी जाएगी और जिसके बुलाने पर वह चली आएगी, वही उसकी प्राप्ति का अधिकार होगा।
दूसरे दिन मूर्ति का श्रृंगार कर उसे सभा के मध्य में पधरा दिया गया और आचार्य श्री तथा शहजादी दोनों से मूर्ति को अपने पास बुलाने के लिये कहा गया। सर्वप्रथम आचार्यश्री ने मूर्तिका आवाहन किया, परंतु मूर्ति टस से मस न हुई। इसके बाद शहजादी ने अपने आराध्य रूप मूर्ति-विग्रह से विनय की तो मूर्ति बड़े ही प्रेम के साथ शहजादी की ओर चल दी।
यह देखकर अन्य लोग तो विस्मित हो गये, परंतु आचार्य श्री कुपित होकर भगवान से बोले- 'यदि सभा में आपको मेरा अपमान ही करना था तो मुझे स्वप्न देकर बुलाया ही क्यों?' आचार्य श्री के इस प्रकार उलाहना देने पर मूर्ति पुनः वापस लौटकर उनकी गोद में विराजमान हो गयी। सभा धन्य धन्य कह उठी। मूर्ति लेकर वैष्णवजन तो चल दिये, पर शहजादी ने अन्न-जल त्याग दिया।
बादशाह को लगा कि उसकी पुत्री प्राण दे देगी तो उसने उसे भी आचार्य के पीछे जाने की अनुमति दे दी। शहजादी को इस प्रकार मार्ग में तो मूर्ति के दर्शन मिलते रहे, पर मंदिर में प्रतिष्ठित होने के बाद उसका प्रवेश निषेध हो गया। तब करुणामय भगवान से उसका दुःख न देखा गया और कहा जाता है कि उन्होंने सबके देखते-देखते उसे अपने श्रीविग्रह में लीन कर लिया। शहजादी के अतिशय प्रेम के प्रतीक रूप में आज भी उसकी एक सुवर्ण प्रतिमा भगवान के समीप विद्यमान है।
कुछ समय पश्चात आचार्य रामानुज श्रीरंगम् चले आये। वहाँ उन्होंने एक मन्दिर बनवाया, जिसमें नम्मालवार और दूसरे आलवार संतों की प्रतिमाएँ स्थापित की गयी और उनके नाम से कई उत्सव भी जारी किये। उन्होंने तिरुपति के मंदिर में भगवान गोविन्दराज पेरुमल की पुनः स्थापना करवाई और मंदिर का पुनः निर्माण करवाया।
उन्होंने देशभर में भ्रमण करके हजारों नर-नारियों को भक्ति मार्ग में लगाया। आचार्य रामानुज के चौहत्तर शिष्य थे, जो सब के सब सन्त हुए। इन्होंने कूरत्तालवार के पुत्र महात्मा पिल्ललोकाचार्य को अपना उत्तराधिकारी बनाकर एक सौ बीस वर्ष को अवस्था में इस असार-संसार को त्याग दिया।
 
 
                                मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
February 24, 2024 
                                यदि आपके घर में पैसों की बरकत नहीं है, तो आप गरुड़...
February 17, 2024 
                                लाल किताब के उपायों को अपनाकर आप अपने जीवन में सका...
February 17, 2024 
                                संस्कृति स्वाभिमान और वैदिक सत्य की पुनर्प्रतिष्ठा...
February 12, 2024 
                                आपकी सेवा भगवान को संतुष्ट करती है
February 7, 2024 
                                योगानंद जी कहते हैं कि हमें ईश्वर की खोज में लगे र...
February 7, 2024 
                                भक्ति को प्राप्त करने के लिए दिन-रात भक्ति के विषय...
February 6, 2024 
                                कथावाचक चित्रलेखा जी से जानते हैं कि अगर जीवन में...
February 3, 2024 
                                
                                 
                                
                                 
                                
                                 
                                
                                 
                                
                                