विरह का प्रकाश (कलश - प्रकरण - 9)
सुनियो बानी सुहागनी, दिदार दिया पिया जब।
अंदर पर्दा उड़ गया, हुआ उजाला सब।।
हे सुहागिनी आत्माओं ! मेरी बातों को ध्यान देकर सुनो जब मुझे मेरे प्राण वल्लभ स्वामी ने दर्शन दिया तब से मेरे अंतर पर पड़ा (मोह और अज्ञान का) पर्दा हट गया और मेरे हृदय आकाश में परम आलोक छा गया।
पिया जो पार के पार है, तिन खुद खोले द्वार।
पार दरवाजे तब देखे, जब खोल देखाया पार।।
हे सुहागिनों ! मेरे पिया परब्रह्म परमात्मा जो शून्य निराकार के परे, क्षर और अक्षर से भी परे दिव्य धाम में हैं, उन्होने सद्गुरु के रूप में स्वयं यहां आकर हद से परे - बेहद के दरवाजे को स्वयं खोलकर दिखाया। तब हमने उस द्वार के पार अपने अविनाशी प्रियतम को पहचान पाने की योग्यता अर्जित कर ली।
खासी जान खेड़ी जिमी, जल सिंचिया खसम।
बोया बीज वतन का, सो ऊग्या वाही रसम ।।
मुझे योग्य पात्र समझ, मेरे हृदय की धरती को ग्रहण करने योग्य जानकर, स्वामी ने उसमें ज्ञान का हल चलाया, प्रेम के जल से सींचकर उसे नरम बनाया। फिर उसमें वतन के संबंध का बीज बो दिया, जो अपने मूल शक्ति, रीति और गरिमा के साथ उगने लगा।
बीज आतम संग निज बुध के, सो ले उठिया अंकुर।
या जुंबा इन अंकूर को, क्यों कर कहूं सो नूर।।
संबंध का वह बीज - मेरा आत्मबल और अक्षर ब्रह्म की बुद्धि द्वारा प्रदत्त तारतम - ज्ञान का संग पाकर दिव्य अंकुर की तरह फूलने - फलने लगा। अब मैं अपनी इस नश्वर जिव्हा से उस विकसित अंकुर के दिव्य प्रकाश का वर्णन कैसे कर पाऊंगी।
पतंग कहे पतंग को, कहां रह्या तूं सोय।
मैं देख्या है दीपक, चल देखाऊं तोय।।
यहां दीपक और पतंगे का दृष्टांत दिया जा रहा है। एक पतंगा दूसरे पतंगे से यह जाकर कहे कि अरे दीवाने ! तू कहां सोया था? मैं तो दीपक देख कर आया हूं। चल, तुझे भी उसके दर्शन करा दूं।
के तो ओ दीपक नहीं, या तूं पतंग नाहिं।
पतंग कहिए तिनको, जो दीपक देख झपाए।।
तब दूसरे पतंगे ने उत्तर दिया था कि तुमने जो देखा है या तो वह दीपक नहीं या फिर तू पतंगा नहीं है। पतंगा तो उसे कहा जाता है जो दीपक को देखते ही तत्क्षण उस में झांप खाकर जल मरे।
दीपक देख पीछा फिरे, साबित राखे अंग।
आए देवे सुधऔर को, सो क्यों कहिए पतंग।।
महामति प्राणनाथ जी कहते हैं कि जो दीपक की लौ - प्रियतम के मुख का तेज देखकर भी लौट पड़े और अपनी देह को कायम रख सके। यही नहीं जो दूसरों से उस दीपक की चर्चा करता है उसे पतंगा नहीं कहा जा सकता।
बिरहा नहीं ब्रह्मांड में, बिना सुहागिन नार।
सुहागिन आतम पिउ की, वतन पार के पार।।
वास्तव में सुहागिन ब्रह्म आत्माओं के सिवाय इस संसार में दूसरे किसी को ऐसा विरह नहीं हो सकता। सच्ची सुहागिन ही परब्रह्म परमात्मा की अंगना कहलाती हैं। उनका घर क्षर-अक्षर से भी आगे अक्षरातीत धाम में नित्य स्थित है।
पेहेले सुख सुहागिनी, पीछे सुख संसार।
एक रस सब होएसी, घर-घर सुख अपार।।
हमारे प्रियतम के परमधाम के ज्ञान का अलौकिक सुख सबसे पहले परब्रह्म की सुहागिन आत्माओं को प्राप्त होगा और उसके बाद दुनिया के समस्त प्राणियों को। समग्र विश्व के प्राणियों के एक रस हो जाने से घर-घर में अपार सुख और आनंद की लहरें उमडने लगेंगी।
ए खेल किया जिन खातर, सो तूं कहियो सुहागिन।
पेहेले खेल दिखाए के, पीछे मूल वतन।।
यह खेल संसार जिन ब्रह्मात्माओं के लिए बनाया है उनको पहले हम भली प्रकार यह संसार दिखा देंगे और फिर इसी संसार में अपने मूल घर परमधाम का साक्षात्कार करा कर अखंड आनंद दिया जाएगा ।
बजरंग लाल शर्मा
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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