महाभारत के प्रत्येक पर्व के आरम्भ में नर (अर्जुन) और नारायण (भगवान श्रीकृष्ण) को नमस्कार किया गया है 'नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम्।' इस दृष्टि से पांडव सेना में भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुन- ये दोनों मुख्य थे।
संजय ने भी गीता के अंत में कहा है कि 'जहाँ योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण और गाण्डीव-धनुषधारी अर्जुन रहेंगे, वहीं पर श्री, विजय, विभूति और अटल नीति रहेगी'।
'दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः - भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुन के हाथों में जो शंख थे, वे तेजोमय और अलौकिक थे। उन शंखों को उन्होंने बड़े जोर से बजाया।
यहाँ शंका हो सकती है कि कौरव पक्ष में मुख्य सेनापति पितामह भीष्म हैं, इसलिए उनका सबसे पहले शंख बजाना ठीक ही है; परन्तु पाण्डव-सेना में मुख्य सेनापति धृष्टद्युम्न के रहते हुए ही सारथी बने हुए भगवान् श्रीकृष्ण ने सबसे पहले शंख क्यों बजाया?
इसका समाधान है कि भगवान सारथी बने चाहे महारथी बने, उनकी मुख्यता कभी मिट ही नहीं सकती। वे जिस किसी भी पद पर रहे, सदा सबसे बड़े ही बने रहते हैं। कारण कि वे अच्युत हैं, कभी च्युत होते ही नहीं।
पाण्डव-सेना में भगवान् श्रीकृष्ण ही मुख्य थे और वे ही सबका संचालन करते थे। जब वे बाल्यावस्था में थे, उस समय भी नन्द, उपनन्द आदि उनकी बात मानते थे।
तभी तो उन्होंने बालक श्रीकृष्ण के कहने से परम्परा से चली आयी इन्द्र-पूजा को छोड़कर गोवर्धन की पूजा करनी शुरू कर दी।
तात्पर्य है कि भगवान जिस किसी अवस्था में, जिस किसी स्थान पर और जहां कहीं भी रहते हैं, वहाँ वे मुख्य ही रहते हैं। इसलिए भगवान ने पांडव-सेना में सबसे पहले शंख बजाया।
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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