आजकल साधु-सन्यासियों के आचरण से गिरने की खबरें मीडिया की बहुत सुर्खी बन रही हैं. इन कथित सन्यासियों के इस आचरण से के भीतर संन्यास और धर्म के प्रति श्रद्धा आहत हो रही है. इसके पीछे कारण क्या हैं, इस लेख में इसकी शास्त्रों और ऋषियों की वाणी के प्रकाश में पड़ताल करने का प्रयास किया गया है.आधुनिक युग के महानतम सन्यासियों में अग्रणी स्वामी विवेकानंद ने संन्यास को जीवन की सबसे ऊँची अवस्था बताया है. कोई व्यक्ति जब चेतना के उच्चतम स्तर पर पहुँच जाता है, तब उसके जीवन में संन्यास का फूल खिलता है. संन्यासी बनना कोई आसान काम नहीं है, जैसाकि आजकल हो गया है. कोई भी व्यक्ति केसरिया वस्त्र धारण कर ले, माथे पर तिलक लगा ले, गले में रुद्राक्ष आदि की मालाएं डाल ले, और बस हो गया संन्यासी. संत तुलसीदास ने श्रीरामचरितमानस में कहा है, कि-
नारि मुई गृह सम्पत्ति नासी. मूढ़ मुड़ाई होहिं संन्यासी
यह बात उन्होंने चार सौ साल पहले व्याप्त स्थिति को देखकर कही थी. इसमें उनकी संन्यास आश्रम में आयी गिरावट को देखकर कही थी. इसमें उनकी गहरी पीड़ा झलकती है. कमोवेश आज भी वैसी ही स्थिति है.
संन्यास के प्रकार
सनातन हिन्दू धर्म में दो प्रकार के संन्यास की व्यवस्था है- विद्वत संन्यास और विद्विशा संन्यास. विद्वत संन्यास में ऐसा होता है, कि व्यक्ति को जब लगता है, कि जीवन में अब कुछ भी पाना और जानना शेष नहीं रहा, लिहाजा मुझे संन्यास ले लेना चाहिए. ऎसी अवस्था में वह जगत से उपराम होकर संन्यास धारण कर लेता है. दूसरे प्रकार का सन्यास विद्विशा संन्यास है. इसका उद्देश्य जीवन का परम तत्व को प्राप्त करना होता है. व्यक्ति के मन में यह निश्चय हो जाता है, कि संसार दुखों का घर है. इसलिए इससे सुख प्राप्त करने में उसकी कोई रुचि नहीं होती. वह संन्यास लेकर अपना शेष जीवन परम तत्व की अनुभूति प्राप्त करने में लगा देता है.
आजकल इनका पालन नहीं
आजकल अधिकतर सन्यासी इन दोनों में से किसी भी श्रेणी में नहीं आते. लगता तो ऐसा है, कि ज्यादातर यह रोज़ी-रोटी का एक साधन बन गया है. हाल ही में एक मुस्लिम मौलाना पकड़ा गया, जो हिन्दू सन्यासी का रूप धरकर प्रवचन ठोंक रहा था. पकडे जाने पर उसने बताया, कि हिन्दू सन्यासी के रूप में पैसा और सम्मान अधिक मिलता है. इसी तरह जिसे देखो वही सन्यासी बन जाता है. संन्यास बहुत गहरी चीज़ है.
संन्यास क्या है ?
वैसे तो सनातन हिन्दू धर्म में जीवन को चार अवस्थाओं में विभाजित कर हर अवस्था के कर्तव्य-दायित्व निर्धारित किये गये हैं. इनमें संन्यास अंतिम अवस्था है. जीवन की तीन अवस्थाओं को पूरी निष्ठा के साथ जीने के बाद संन्यास की चौथी अवस्था आती है. लेकिन वर्तमान युग में हो यह रहा है, कि पिछली तीन अवस्थाओं से गुजरे बिना लोग सीधे चौथी, यानी संन्यास की अवस्था में पहुँच जाते हैं. हालाकि, हर व्यवास्था के अपवाद भी होते हैं. ज्ञान की बहुत उत्कट अभिलाषा के कारण कोई सीधे सन्यास भी ले सकता है, ऐसा प्रावधान है. लेकिन ऐसा बहुत दुर्लभ होता है. किसी विरले व्यक्ति को इस प्रकार का वैराग्य घटित होता है. भारतीय जीवन-दर्शन में गृहस्थ जीवन को सबसे अधिक महत्त्व दिया गया है. शास्त्रों में अनेक प्रसंगों और कथाओं के माध्यम से इसका महत्त्व प्रतिपादन किया गया है.
‘योगवासिष्ठ’ में भगवान श्रीराम के मन में वैराग्य होने और राजपाट से विमुख होकर वैराग्य धारण करने की इच्छा व्यक्त करने पर गुरु वशिष्ठ ने उन्हने गृहस्थ और सांसारिक जीवन जीने का उपदेश दिया. इसमें बताया गया है कि व्यक्ति अपने कर्तव्यों का निष्काम भाव से निर्वहन करते हुए मोक्षलाभ कर सकता है. भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन को यही उपदेश दिया. महाभारत में राजा उपरति का प्रसंग आता है. वह राज्य की इच्छा त्याग कर वैराग्य अपनाना चाहते थे. इंद्र ने उन्हें राजा बनकर अपने दायित्वों के निष्ठा के साथ निर्वहन के द्वारा मोक्ष प्राप्त करने का उपदेश दिया. राजा परिवृत के साथ साथ भी ऐसा ही हुआ. महाभारत युद्ध के बाद युधिष्ठिर ने भी जीवन से विरक्त होने की इच्छा व्यक्त की थी. भीष्म पितामह ने उन्हें ऐसा न करने का उपदेश दिया और राजधर्म समझाया. स्वामी विवेकानंद भी एकांत में समाधि का आनंद उठाना चाहते थे, लेकिन उनके गुरु श्रीरामकृष्ण परमहंस ने उन्हें कर्म का मार्ग बताया. इस प्रकार के असंख्य उदाहरण मिलते हैं.
इतने संन्यासी कैसे
अब सवाल उठता है कि देश में इतने सन्यासी कैसे हो गये? यह एक विकृति है. यह कहाँ से आयी, इसको समझने के लिए बहुत पढ़ने-समझने और मनन करने की ज़रूरत है. भारत के इतिहास में एक ऐसा दौर भी आया, कि बौद्ध धर्म के प्रभाव में लाखों की संख्या में लोग घर-द्वार छोड़कर भिक्खु बन गये. एक साथ इतने लोगों को वैराग्य होना संभव ही नहीं है. सारे समाज की व्यवस्था चौपट होने की कगार पर पहुँचने लगी. सभी साधु हो गये तो खेती कौन करेगा? उद्योग कौन चलाएगा? संसार की अन्य गतिविधियों का संचालन कौन करेगा? जिन पत्नी-बच्चों को छोड़ दिया है उनका जीवन कैसे चलेगा? लिहाजा यह बहुत गलत प्रवृति विकसित हो गयी थी. भारतीय धर्म-दर्शन जीवन के प्रति सदा विधायक रहा है. उसमें जीवन की अवहेलना नहीं की गयी है. हर शास्त्र में जब तक पूर्ण वैराग्य नहीं हो जाए, तब तक संन्यास नहीं लेने की बात पर बल दिया गया है.
भटकाव के और भी कारण
ऐसा नहीं होता, कि लोग सिर्फ आसानी से धन-संपदा कमाने के लिए ही संन्यास धारण कर लेते हैं. अक्सर ऐसा होता है कि किसी संत के साथ अधिक रहने, बहुत धार्मिक साहित्य पढ़ने, अत्यधिक प्रवचन आदि सुनने या किसी साधु के कथित चमत्कारों से प्रभावित होकर लोगों के मन में वैराग्य जैसा भाव उत्पन्न हो जाता है. अपने किसी करीबी व्यक्ति की मृत्यु होने और घर बर्बाद हो जाने आदि के कारण भी लोग भावना में बहकर संन्यास ले लेते हैं. यह संन्यास वैराग्य से उपजा नहीं होता. भीतर जब तक संस्कार मौजूद हैं और जब तक उनके बीज साधना के माध्यम से जल कर नष्ट नहीं हो जाते, तब तक उनके फिर से जागने का खतरा बना रहता है. संस्कार हमारे अवचेतन में पड़े रहते हैं. कई बार वे इतने गहरे चले जाते हैं, कि हम समझते हैं कि वे नष्ट हो गये. लेकिन उन्हें थोड़े भी उपयुक्त परिवेश के रूप में खाद-पानी मिलने पर वे फिर से अंकुरित हो उठते हैं. परिणामस्वरूप व्यक्ति ऊपर से संन्यास का बाना पहने रहता है और भीतर काम के पौधे लहलहाते रहते हैं. काम का वेग प्रबल होने पर वह ख़ुद पर काबू नहीं कर पाता और दुष्कर्म कर बैठता है.
प्राचीन काल में संन्यास आसान नहीं था
यही कारण है कि पुराने समय में गुरु लोग शिष्यों को बहुत आसानी से संन्यास दीक्षा नहीं देते थे. वे शिष्य को कम से कम बारह वर्ष तक ब्रह्मचारी के रूप में अपने साथ रखकर उसके चित्त की अवस्था का बहुत गहराई से अवलोकन करते थे. जब देख लेते थे, कि इसके संस्कार इतने क्षीण हो गये हैं कि, उनके पुन: अंकुरित होने की संभावना नहीं है, तभी वे सन्यास दीक्षा देते थे. ऐसे भी उदाहरण मिलते हैं कि सन्यस्त होने के बाद भी काम का संस्कार जागने पर लोग फिर से गृहस्थ हो गये. अपरिपक्व चित्त वाले सन्यासी के लिए दुराचार या व्यभिचार करने से अच्छा तो यह है कि फिर से गृहस्थ जीवन में चला जाय.इस तरह के उदाहरण भी मिलते हैं. अंत ज्ञानेश्वर के पिता संन्यास छोड़कर गृहस्थ हो गये थे. और भी मिसालें हैं.
संन्यास के कठोर नियम
संन्यास के नियम बहुत कठोर हैं. संन्यासी को निरंतर असुरक्षा में रहने को कहा गया है. उसे अधिक दिन तक किसी स्थान पर नहीं ठहरना चाहिए. उसे अगले वक्त भोजन मिलेगा या नहीं इसकी चिन्ता नहीं करनी चाहिए. मिल जाय तो ठीक और नहीं मिले तो भी प्रभु की इच्छा. स्वामी विवेकानंद संन्यास लेने के बाद दस वर्ष तक देश भर में भ्रमण करते रहे. उन्होंने नियम बनाया था, कि किसीसे कुछ मांगेंगे नहीं. यदि कुछ अपने आप मिल जाता, तो ग्रहण कर लेते थे, अन्यथा भूखे ही सो जाते थे. आश्रम बनाकर रहने वाले सन्यासियों तक के लिए यह नियम है, कि वे अपरिग्रह का कठोरता से पालन करें.अर्थात जितना आवश्यक हो, उतना ही अपने पास रखें. यहाँ तक कि रसोई के लिए लकड़ी भी दूसरे दिन के लिए जैम करके नहीं रखें.हर दिन लकड़ी लेकर आयें. सन्यासी के लिए खानपान, बोलचाल, उठने-बैठने, सोने-जागने, लोगों से मिलने-मिलाने आदि के बहुत कठोर नियम होते हैं. यह सब उनमें वैराग्य का भाव बढ़ाने के लिए हैं. अधिकतर लोग संन्यास तो ले लेते हैं, लेकिन इन नियमों का पालन नहीं कर पाते. वे भटक जाते हैं.
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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