Published By:धर्म पुराण डेस्क

हमारे धर्म शास्त्रों में विद्या को जीवन का आधार माना गया है। विद्या ही जीवन को सही ढंग से चलाने की कला सिखाती है। विद्या से ही व्यक्तित्व बनता है। विद्या से ही कृतित्व गढ़ता है। विद्या से ही मन और मस्तिष्क संवरता।
विद्या प्राप्ति की उपादेयता-
विद्या नाम नरस्य रूपमधिकं प्रच्छन्न गुप्त धनं, विद्या भोगकरि सदा शुभ करि, विद्या गुरुणां गुरु।
विद्या बन्धुजने विदेश गमने विद्या परां देवता, विद्या राजसुपूजिता न च धनं विद्या विहिनः पशुः॥
(विषय से संबंधित सारभूत ज्ञान ही विद्या है।) विद्या मनुष्य का सच्चा रूप है, आभूषण है, विद्या ही सबसे बड़ा गुप्त धन है, विद्या से ही भोगों (कामनाओं) की पूर्ति होती है, विद्या सदा सुख देने वाली है, विद्या गुरुओं की भी गुरु है।
विदेश में विद्या ही भाई-बंधु के समान सहयोग करती है, विद्या अपर देवता है, विद्या में निपुणता से ही राज सम्मान व पद की प्राप्ति होती है अर्थात उपरोक्त सभी की सुख की प्राप्ति कराने में विद्या ही सक्षम होती है न कि धन। इसलिए जो विद्या से हीन है, निरक्षर है, विद्या की उपयोगिता को नहीं समझते है, विद्या को व्यवहार में नहीं लाते है, वे तो साक्षात् पशु ही होते है। इसलिए आप भी विद्या अर्जन करें,
समाज व परिवार व देश के हित में विद्या का उपयोग करिये, अपने बच्चों को उच्च से उच्च विद्या प्राप्त कराइये। तभी आपका मनुष्य जीवन सार्थक होगा। अन्यथा पशु में और आप में कोई अंतर नहीं।
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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