आज हम इन्हीं प्रश्नों का जवाब देने की कोशिश करेंगे..
जब तक राग-द्वेष (विषमता) है, तब तक संसार ही दिखता है, भगवान नहीं दिखते । भगवान द्वन्द्वातीत हैं। जब तक राग-द्वेष रूप द्वन्द्व रहता है, तब तक दो चीजें दिखती हैं, एक चीज नहीं दिखती । जब राग द्वेष मिट जाते हैं, तब एक भगवान के सिवाय कुछ नहीं दिखता!
तात्पर्य है कि राग-द्वेष मिटने पर अर्थात समता आने पर ‘सब कुछ भगवान ही हैं' — ऐसा अनुभव हो जाता है। इसलिये भगवान अपने भक्तों को समता देते हैं। समता ही 'बुद्धि योग' अर्थात कर्म योग है-
'समत्वं योग उच्यते'। गीता में कर्मयोग को 'बुद्धियोग' नाम से कहा गया है; जैसे—'दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धि योगाद्धनञ्जय', 'बुद्धि योगमुप आश्रित्य मच्चित्तः सततं भव' बुद्धि योग प्राप्त होने पर भक्त दूसरे के दुःख से दुखी होकर उसको सुख पहुंचाने की चेष्टा करता है।
एक चिंतन 'करते' हैं और एक चिंतन 'होता' है। जो चिन्तन, भजन करते हैं, वह नकली (कृत्रिम) होता है और जो स्वतः होता है, वह असली होता है।
किया जाने वाला चिन्तन निरन्तर नहीं होता, पर होने वाला चिन्तन श्वास की तरह निरंतर होता है, उसमें अंतर नहीं पड़ता - 'सततयुक्तानां' । शरीर में प्रियता, आसक्ति होने से भगवान का चिंतन करना पड़ता है और शरीर का चिन्तन स्वतः होता है। परन्तु भगवान में प्रियता (अपनापन) होने से भजन करना नहीं पड़ता, प्रत्युत स्वत: होता है और छूटता भी नहीं।
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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