Published By:धर्म पुराण डेस्क

भारत में सबसे ज्यादा कालसर्प दोष पीड़ित क्यों है?

हमारा भारत प्राचीन ऋषियों की भूमि है, भारत का मुख्य आधार सृष्टि के आरम्भ से संस्कृति, संस्कार और धर्म का प्रचलन रहा है। आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में हमारे बुजुर्ग धर्म अध्यात्म के किस्से बड़ी रुचि से सुनाते मिल जायेंगे। इन किस्सों में काफी कुछ सच्चाई भी होती है। इन पर सहज विश्वास भी होता है। सबसे बड़ी बात यह है कि भारत में होने वाली धार्मिक घटनाएं सत्य ही होती हैं।

भारत चमत्कार की भूमि है। यहाँ प्रतिदिन कोई न कोई चमत्कार होते ही रहते हैं। चाहे वह शिव-गणेश की प्रतिमाएँ दूध पीती हों, तो कभी एक ही महात्मा को दो-तीन जगह पर एक ही समय पर एक साथ देखा गया हो या फिर जल परी, उड़नतश्तरी, उड़न खटोला आदि किस्से आज भी सुनने को मिल जाते हैं। 

विज्ञान इनके विषय में अभी शून्य ही है। इसके अलावा भी राजा-रानियों के किस्से, अलिफ लैला की कहानियाँ, अघोरियों के चमत्कार, योगियों की सिद्धि, महात्माओं के शाप या वरदान आदि के किस्से किसी रहस्य से कम नहीं हैं। 

भारत की विशेषता यह भी है कि अधिकतर पुण्य आत्माओं, अवतारों का जन्म इसी माटी में हुआ है। भगवान कृष्ण का जन्म मात्र 5000 वर्ष पुराना किस्सा है। महाभारत के युद्ध से ज्ञात होता है कि उस समय विज्ञान अपने शिखर पर था।

स्वामी हरिहरानंद जो दुनिया के वैज्ञानिकों के सामने जहर पी गए, स्वामी रामकृष्ण परमहंस तो माँ दक्षिणा काली से साक्षात दर्शन कर वार्तालाप करते थे। हमारे वेद-पुराण, उपनिषदों, भास्य टीका, ग्रन्थ और धार्मिक साहित्य में ज्ञान और शक्ति का अपार भण्डार भरा पड़ा है- इनमें ब्रह्माण्ड के रहस्य, प्राचीन ज्ञान और विज्ञान, सफलता एवं समृद्धि के रहस्यमयी सूत्र छुपे हुए हैं। जिसका लालन-पालन, अध्ययन करने वाला कोई नहीं है। 

वेद-पुराण बेचारे अनाथों की तरह पड़े हुए हैं। कोई सुध लेने वाला नहीं है, हाँ कभी कोई इसका अध्ययन भी करता है तो इसकी गहराई में न जाकर, विश्लेषण, चिन्तन न करके इसकी आलोचना आरम्भ कर देता है, क्योंकि आलोचना, विरोध एवं खिल्ली उड़ाना बहुत ही सरल, सहज कार्य है। 

आये दिन समाचार पत्रों में भी हमारी भारतीय परम्परा की आलोचना और खिल्ली उड़ाई जाती हैं। समाचार पत्रों में कभी कोई विदेशी महिला का नग्न चित्र इस प्रकार से प्रकाशित किया जाता है जैसे ये नग्न महिला कोई महापुरुष अथवा ईश्वरीय अवतार हो ।

भारतीय संस्कृति और संस्कार दिनों-दिन अपाहिज होते जा रहे हैं। कोई भी इनकी खोज-खबर लेने वाला नहीं है भारतीय लोगों के दुःख का मूल कारण है संस्कृति से विमुखता और संस्कारहीनता। 

आज से 50 वर्ष पूर्व तक मात्र 5 या 10 प्रतिशत लोगों की जन्म-पत्रिका में कालसर्प योग दोष हुआ करता था किन्तु वर्तमान समय में 90 प्रतिशत लोग कालसर्प से पीड़ित हैं। इस समय कालसर्प में अधिकतर लोग जन्म ले रहे हैं इसका मुख्य कारण है समय की बर्बादी तथा हमारे माता-पिता का धर्म से विमुख होना। संस्कार और संस्कृति को छोड़ना आदि ।

लोग धर्म से विमुख क्यों हुए? इसके पीछे कुछ कथित कम पढ़े-लिखे कर्मकाण्डी विद्वानों द्वारा धर्म के नाम से की गई| लूट-खसोट से लोगों का धर्म या कर्म-काण्ड, पूजा-विधान आदि से मन ऊब गया। कुछ व्यावसायिक कम पढ़े-लिखे ब्राह्मणों द्वारा सत्यनारायण की कथा का प्रचार-प्रसार इस प्रकार किया कि उत्तर भारत में प्रत्येक घरों में सत्यनारायण की कथा होने लगी। लेकिन कोई चमत्कार नहीं हुआ।

होटल और क्लबों की खोखले पन तथा दिखावे की झूठी शान बनाये रखने हेतु भौतिकता में डूबे हुए लोगों ने अपनी नैतिकता, ईमानदारी को दरकिनार कर सत्य को घर से विदा कर दिया और जिस घर-परिवार से सत्य ही चला गया तो नारायण भी पीछे-पीछे चले गए अर्थात जिस घर परिवार में संस्कार और संस्कृति को अलविदा कर दिया तो वहाँ से सत्य नारायण (श्री हरि) भी खिसक लिए अब आप चाहे कितनी भी सत्यनारायण की कथा करा लेवें। कोई लाभ नहीं होने वाला।

उपनिषदों में वर्णित है कि जिस परिवार में सत्य, संस्कार और संस्कृति का वास है वहाँ नारायण साक्षात रूप में वास करते हैं। किन्तु जब पढ़े-लिखे लोगों को सत्यनारायण की कथा का कोई तथ्य समझ नहीं आया तो धर्म में आस्था रखने वाले लोग ऊब गए, टूट गए। अब यह कथा कराने वाले कुछ ही अंधविश्वासी लोग बचे हैं।

भागवत कथा का इतना प्रचार-प्रसार भी मात्र व्यवसाय ही मुख्य आधार है। भागवत के रचयिता श्री वेदव्यास ने तो स्वयं ही लिख दिया कि कलयुग में भागवत कथा लुप्त हो जायेगी और हो भी चुकी है अब जो कथा सुनाई जा रही है, वह केवल ढकोसला है उसकी गहराई, अर्थ, चिंतन श्रद्धा एवं अनुसरण आदि से किसी भी कथावाचक अथवा परीक्षत (श्रोता) का कोई लेना-देना नहीं है।

जब मुझे कुछ आडम्बर युक्त लेकिन कथित धार्मिक लोग भागवत कथा सुनने हेतु प्रेरित करते, तो मैं अक्सर उनसे कहा करता हूँ कि आज के समय में भागवत का रूप-रंग और अर्थ बदल गया है; क्योंकि मेरी दृष्टि में भागवत का अर्थ हो गया है भाग-मत। 

आज भागवत से केवल एक ही शिक्षा मिल रही है कि भाग-मत यहीं बैठ, भागवत सुन-सुनकर समय को बर्बाद कर, कर्महीन हो जा। आजकल की कथा-भागवत मात्र किस्से बनकर रह गए हैं। पूरी भागवत में तथ्यपूर्ण और पुराण समस्त चर्चा मात्र 10 या 20 प्रतिशत ही होती है; शेष सब चुटकुले अथवा श्रोता के रुझान के अनुसार कहानियां जो लोगों को पसंद आ रही हैं वही कथावाचक सुना रहे हैं। यह सब विशाल व्यापार बन चुका है।

धर्म गुरुओं और कथावाचकों में भारी प्रतिस्पर्धा हो रही है। धर्म के नाम पर जितना गोरखधंधा भारत में हो रहा है इतना शायद विश्व में कहीं नहीं है और यही हमारे दुःख का कारण है। 

धर्म गुरुओं का राजनीति में प्रवेश देश को गर्त में ले जाएगा क्योंकि अब वे संत नहीं बचे, जो गलत को ठीक कर सकें। कई संतों ने तो कथा के व्यापार को विस्तार देने हेतु अंग्रेजी में प्रवचन शुरू कर दिए हैं जबकि इन्होंने सीखा सब-कुछ वेदों, ग्रन्थों से उसमें मात्र संस्कृत ही है। लेकिन धंधा करने के कारण अंग्रेजी में बोलना आरम्भ कर दिया; जबकि होना ये था कि इन्हें अपनी मातृभाषा संस्कृत या हिन्दी नहीं छोड़नी थी, इन्हें तो जो लोग अपनी संस्कृति, संस्कार और भाषा से भटक गए थे, उन्हें अपनी भारतीय भाषा का ज्ञान देना चाहिए था। 

हमारे कथा वाचक या संत महात्मा जिस आराध्य को मानते हैं, उनका ही अनुसरण नहीं कर रहे हैं। तो श्रोताओं को क्या अनुसरण करायेंगे।

रघुवीर


 

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