Published By:धर्म पुराण डेस्क

भगवान शिव को क्यों नहीं चढ़ाया जाता केतकी का फूल (Ketki Ka Phool)..

केतकी का पुष्प सफ़ेद रंग का होता है और देखने में बहुत सुन्दर होता है किन्तु फिर भी इसे महादेव को अर्पित नहीं किया जाता...।   Ketki Ka Phool |Ketki Flower

भगवान शिव को क्यों नहीं चढ़ाया जाता केतकी का फूल(Ketki ka Phool)? केतकी का पुष्प (Ketki ka phool) सफ़ेद रंग का होता है और देखने में बहुत सुन्दर होता है किन्तु फिर भी इसे महादेव को अर्पित नहीं किया जाता क्यूंकि स्वयं भगवान शंकर ने इसे वर्जित किया है। 

इसके पीछे जो कथा है वो सृष्टि के आरम्भ से पहले की है। जब सम्पूर्ण जगत अंधकार में डूबा हुआ था तब स्वम्भू श्रीहरि विष्णु प्रकट हुए। उनकी नाभि से एक कमल की उत्पत्ति हुई जिसमें पंचमुखी ब्रह्मा ध्यानमग्न थे। 

दोनों को स्वयं के प्राकट्य का कारण ज्ञात नहीं था किन्तु वे उस जगत में सबसे पहले उत्पन्न हुए थे इसी कारण दोनों स्वयं को ज्येष्ठ एवं श्रेष्ठ बताने लगे। उनका विवाद बढ़ता की जा रहा था कि उनके मध्य एक अनंत अग्नि लिंग प्रकट हुआ और आकाशवाणी हुई कि जो कोई भी इसका छोर ढूंढ लेगा वही श्रेष्ठ होगा।  

ये सुनकर ब्रह्मा हंस के रूप में ऊपर और विष्णु वराह रूप में उस अग्निलिंग के नीचे उसका छोर पता करने चले। भगवान विष्णु १००० वर्षों तक निरंतर उस अग्निलिंग के नीचे जाते रहे किन्तु उन्हें उसका छोर नहीं मिला। अंत में निराश होकर नारायण वापस अपने स्थान पर चले आये। उसी समय ब्रह्मा भी ऊपर की ओर जाते-जाते थक गए और वापस अपने स्थान पर लौटे। 

मार्ग में उन्हें एक केतकी का फूल मिला जो ब्रह्मा का अति तेजस्वी रूप देख कर उनका भक्त हो उनके साथ ही नीचे चल पड़ा। जब ब्रह्मा और विष्णु मिले तो भगवान विष्णु ने सत्य कह दिया कि वे उस अग्निलिंग का छोर नहीं ढूंढ पाए। किन्तु ब्रह्मा ने असत्य कहा कि उन्होंने अग्निलिंग का ऊपरी छोर ढूंढ लिया है। इसपर नारायण बड़े चकित हुए और उनसे उसका प्रमाण माँगा। 

इस पर ब्रह्मदेव ने कहा कि ये केतकी का पुष्प उन्हें इस अग्निलिंग के अंतिम छोर पर मिला। केतकी पुष्प (Ketki Phool) तो पहले ही परमपिता का भक्त था अतः उसने भी झूठ ही कह दिया कि ब्रह्मदेव ने उसे इस अग्निलिंग के छोर पर ही पाया है। 

अब भगवान विष्णु ने ब्रह्मदेव को स्वयं से श्रेष्ठ मान लिया और उनकी पूजा करने को उद्धत हुए। उसी समय वो महान अग्निलिंग सीमित होकर सदाशिव के तेज में बदल गया और सदाशिव ने ब्रह्मदेव को उनकी असत्यता पर बहुत धिक्कारा। उन्होंने दंड स्वरुप ब्रह्मा का पांचवां सर भी काट लिया और नारायण को श्रेष्ठ घोषित किया। 

चूँकि केतकी के पुष्प ने भी असत्य भाषण किया था इसीलिए उसे महादेव ने अपनी पूजा में निषिद्ध घोषित कर दिया। तभी से ये पुष्प सुन्दर होने के पश्चात भी महादेव की पूजा में उपयोग में नहीं लाया जाता। इसके बाद महादेव ने दोनों को पुनः तपस्या करने की आज्ञा दी और अंतर्धान हो गए। 

अनंत समय तक दोनों के तप करने के बाद सदाशिव ने ब्रह्मदेव को सृष्टि की रचना और नारायण को सृष्टि के पालन का दायित्व दिया। फिर स्वयं अपने अंश से शिव को प्रकट कर उन्हें सृष्टि के संहार का कार्य प्रदान किया। 

 


 

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