 Published By:दिनेश मालवीय
 Published By:दिनेश मालवीय
					 
					
                    रामकथा मे सीता स्वयंवर सबसे महत्वपूर्ण प्रसंगों मे शामिल है। उस समय दो तरह के स्वयंवर होते थे। एक तरह के स्वयंवर मे कन्या का पिता राजा सभी देशों के राजाओं और राजकुमारों को विधिवत निमंत्रण भेजकर उनसे स्वयंवर में भाग लेने का अनुरोध करता था
शिव धनुष को सिर्फ राम ही क्यों उठा पाये? उस वक्त के सबसे ताकतवर शूरवीर क्यों असफल रहे? क्या था इसका रहस्य? -दिनेश मालवीय
रामकथा मे सीता स्वयंवर सबसे महत्वपूर्ण प्रसंगों मे शामिल है। उस समय दो तरह के स्वयंवर होते थे। एक तरह के स्वयंवर मे कन्या का पिता राजा सभी देशों के राजाओं और राजकुमारों को विधिवत निमंत्रण भेजकर उनसे स्वयंवर में भाग लेने का अनुरोध करता था। इस स्वयंवर में हर प्रतिभागी का पूरा परिचय दिया जाता था।
उसके कुल और गुणों को बताया जाता था। कन्या के मन को जो प्रतिभागी अच्छा लगता था, वह उसके गले में वरमाला डालकर उसका पति रूप में वरण कर लेती थी। दूसरी तरह के स्वयंवर में कन्या का पिता कोई शर्त रख देता था। उस शर्त को जो पूरी कर देता था,कन्या का विवाह उसके साथ हो जाता है।
ऐसे स्वयंवर वाली कन्या को "वीर्यशुल्का" कहा जाता था। सीता इतनी अधिक रूपवान और गुणवान थीं कि उनके पिता राजा जनक उनका विवाह उस समय के सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति से करना चाहते थे। इसके लिये उन्होंने स्वयंवर का आयोजन किया।
उनके पास शिवजी का धनुष था, जो उन्हें भगवान परशुराम ने प्रदान किया था। राजा जनक ने यह शर्त रखी कि जो भी इस धनुष की प्रत्यंचा चढ़ाने मे सफल होगा, वही सीता का पति होगा।
स्वयंवर में उस समय के महानतम राजा और राजकुमार आये। उनमे से कुछ तो असीम बलशाली थे। रावण और बाणासुर जैसे महाबलशाली मी आये थे। हर कोई सीता जैसी परम सुंदरी को पाना चाहता था। लेकिन बहुत अनूठी बात यह थी कि धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाने की बात तो दूर उस धनुष को कोई उसकी जगह से रत्ती भर भी डिगा नहीं सका।
महाकवि तुलसीदास ने इस बात को बहुत अद्भुत ढंग से कहा। उन्होंने लिखा- डगइ न शंभु सरासन कैसे कामी बचन सती मन जैसे। यानी शिवजी का धनुष उसी प्रकार नहीं डिगता, जैसे कामी पुरुष के वचनों से सती का मन चलायमान नहीं होता।
तुलसी कहते हैं कि मानो वीरों की भुजाओं का बल पाकर वह धनुष और अधिक भारी हो जाता था। हारकर सारे राजा लज्जित होकर अपने आसन पर सिर झुकाकर बैठ गये। इस सभा में श्री राम अपने गुरु विश्वामित्र और भाई लक्ष्मण के साथ उपस्थित थे। वह शांत भाव से बैठे सब देख रहे थे।
राजाओं के असफल होने पर जनक बहुत निराश हो गये। हताशा में वह यहाँ तक कह गये कि यदि मुझे पता होता कि पृथ्वी वीरों से रहित हो गयी है, तो मैं स्वयंवर ही आयोजित नहीं करता।
ऐसी स्थिति ने विश्वामित्र ने श्रीराम से कहा कि- हे राम! उठो, शिवजी का धनुष भंग कर जनक का संताप मिटाओ। श्रीराम ने गुरु को सिर नवाया। वह सहज रूप से खड़े हुये। उन्होंने बड़ी फुर्ती से धनुष उठा लिया। उन्होंने उसे उठाकर उस पर डोरी इतनी तेजी से चढ़ाई कि कोई देख ही नहीं पाया। धनुष दो टुकड़े हो गया।
एक बड़ा रहस्य इस प्रसंग मे एक बड़ा रहस्य यह है कि आखिर यह धनुष कितना भारी था कि महाबलशाली योद्धा उसे तिल भर भी डिगा तक नहीं सके? इस संबंध में अनेक तरह की बातें विद्वानों ने कही हैं। लेकिन तार्किक और आध्यात्मिक दृष्टिकोण से देखने से दो बातें ज़्यादा सटीक लगती हैं।
तार्किक दृष्टि से ऐसा प्रतीत होता है कि इस धनुष को उठाने की कोई विशिष्ट तकनीक थे, जो सिर्फ़ श्रीराम जानते थे। उन्हें यह गुरु विश्वामित्र ने सिखाई थी। आध्यात्मिक दृष्टि से से देखा जाए तो शिव धनुष को वही व्यक्ति उठा सकता था जो मन कर्म और वचन से पूरी तरह निष्पाप, निश्छल और निराभिमानी हो। उस सभा में इन सभी गुणों से सम्पन्न व्यक्ति सिर्फ श्रीराम थे।
सभी राजा अभिमान से भरे थे। उनके मन पवित्र नहीं थे। हर एक राजा बहुत तमक कर धनुष के पास गया। मित्रो, यही था वह रहस्य कि इतने महाबली राजा जिस धनुष को डिगा तक नहीं सके, उसे श्रीराम ने फूल की तरह उठा लिया। इस प्रसंग से यही शिक्षा मिलती है कि जीवन मे पवित्रता, निश्छलता और निराभिमानता ही सबसे बड़ी शक्ति है।
 
 
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