आजकल ही नहीं बहुत पहले से यह देखने में आता है कि लोग अपने मित्रों, परिचितों और सम्बन्धियों की वस्तुओं का उपयोग करते हैं. कभी उनके कपड़े पहन लेते हैं तो कभी जूते तो कभी कोई अन्य चीज़ इसमें सामाजिक दृष्टि से कोई दोष नज़र नहीं आता और उनके आपसी प्रेम-स्नेह का ही परिचय मिलता है. लेकिन ऐसा करने से आध्यात्मिक और सूक्ष्म दृष्टि से बहुत नुकसान होता है.
भारत के अनेक प्रतिष्ठित शास्त्रों में दूसरों की वस्तुओं के उपयोग की सख्त मनाही की गई है. इनमें मनुस्मृति, गौतम स्मृति,धर्मसूत्र, पद्मपुराण, महाभारत, मार्कंडेय पुराण, ब्रहम पुराण, स्कंद पुराण आदि शामिल हैं. जैसा कि हमने पिछले लेखों में बताया है, शास्त्रों द्वारा जो विधि-निषेध किये गये हैं, उनके पीछे ठोस तर्क हैं.
ऊपर बतायी गयी दूसरों की वस्तुओं का उपयोग स्वास्थ्य, धर्म, विज्ञान, नीति और लोक व्यवहार की दृष्टि से अनुचित है. दूसरों के कपड़े, जूते, कमंडल या बर्तन में अपने मूल स्वामी के संस्कार होते हैं. आप स्वयं महसूस करते होंगे कि आप किसी के कमरे में जाएँ तो वहाँ जाते ही आपको पता लग जाएगा कि उसमें रहने वाला व्यक्ति किस प्रकार का होगा.
हर व्यक्ति की वस्तुओं में उसके व्यक्तित्व के तत्व निहित होते हैं. उसके संस्कार, उसका आचरण, उसकी आदतें, उसकी सोच आदि उसमें छिपी होती है. आप छोटा सा ही उदाहरण लें, कि यदि आपने अपने जूते-चप्पल बहुत सारे जूते-चप्पलों के ढेर में उतारे हों और आप बाहर आकर यदि किसी दूसरे के जूते में पैर डाल दें तो आपको तत्काल अहसास हो जाएगा कि यह आपका नहीं है.
यहाँ तक कि कलम के साथ भी ऐसा होता है. आचार्य चाणक्य ने कहा है कि-" अपनी कलम, जूता, और स्त्री किसी और को न दिए जाएँ, क्योंकि वे वापस नहीं आते और अगर आ भी जाएँ तो भ्रष्ट होकर लौटते हैं. शास्त्रों में किसी के पलंग, आसन, कुर्सी, आभूषण, जपमाला और अंगूठी आदि का उपयोग करना भी वर्जित बताया गया है.
ज्योतिष के हिसाब से, इनमें इन वस्तुओं के स्वामियों का दुर्भाग्य, नकारात्मक्ताएं, अवगुण और उसकी प्रवृतियां जुड़ी रहती हैं. आप सोच सकते हैं कि इनके भीतर छुपी अच्छी चीजों का लाभ भी तो आपको मिल सकता है, लेकिन ऐसा नहीं होता.
आध्यात्मिक साधनाओं में गुरु द्वारा जिस आसन पर बैठा कर दीक्षा दी जाती है, उसे किसी के द्वारा छूने तक की मनाही होती है, उपयोग की तो बात ही छोडिये. पराई स्त्री का भोग तो धर्म, नैतिकता और मर्यादा के सर्वथा प्रतिकूल है. इससे आपके प्राण तक संकट में आ सकते हैं. हर कहीं और हर किसी के घर या साथ भोजन करने की भी मनाही है. इसमें जाति, धर्म या वर्ण का सवाल नहीं है.
सवाल है जिस व्यक्ति का या जिस व्यक्ति के साथ आप भोजन कर रहे हैं उसके संस्कारों और आचरण का वे आप में आये बिना नहीं रह सकते. न जाने क्यों कालान्तर में इसे जाति और वर्ण से जोड़ दिया गया, अन्यथा इसका कारण उपरोक्त ही था. परिश्रम द्वारा जिस अन्न पर अपना या अपने परिवार का अधिकार सिद्ध हो, उस अन्न को प्रशंसनीय माना जाता है. मूल्य देकर लिया गया अन्न माध्यम और मांग कर लिया गया अन्न अधम माना जाता है.
महाभारत में कहा गया है कि अन्न किस प्रकार कमाया गया है, उसको पकाने और परोसने वाले के भाव और संस्कार भी अन्न की गुणवत्ता को प्रभावित करते हैं. इसलिए पराये अन्न का सेवन निषिद्ध किया गया है. मृत्यु भोज में भोजन करने की भी यथा संभव मनाही है. मनुस्मृति में तो यहां तक कहा है कि जो बुद्धिहीन गृहस्थ अतिथि-सत्कार के लालच में दूसरों के घर जाकर उसका अन्न खाता है, वह मरने के बाद उस अन्नदाता के यहाँ पशु बनता है. स्वाद के लोभ और सत्कार पाने के लालच में बिना परिश्रम किये मुफ्त का खाना खाने से व्यक्ति अपना सम्मान खोता है, उसका भविष्य बिगड़ता है और वह खिलाने वाले का ऋणी हो जाता है. इस जन्म में यह ऋण न चुका पाने पर उसे अगले जन्म में उसके यहाँ पशु के रूप में रहना पड़ता है.
स्कन्दपुराण के अनुसार जो व्यक्ति अमावस्या को पराये अन्न का सेवन करता है, उसका पूरे महीने किया गया पुण्य खिलाने वाले को मिल जाता है. अमावस्या पितरों की होती है. साथ ही अयनारम्भ तथा संक्रांति संधिकाल होते हैं. ग्रहण और सूर्य ग्रहण तो संक्रमण काल होते ही हैं, इसलिए इन अवसरों पर दूसरों के अन्न का बुरा प्रभाव माना गया है. हम छोटी-मोटी चोरी को चोरी ही नहीं मानते, लेकिन शास्त्रों का कहना है कि पराई वस्तु भले ही सरसों के दाने बराबर क्यों न हो उसका अपहरण करने वाला व्यक्ति पापी और नरक गामी होता है.
अपहरण का मतलब सिर्फ छलपूर्वक या ताकत से कोई चीज छीन लेना नहीं है. कुछ भी अनाधिकृत वस्तु ग्रहण करना या स्वामी की अनुमति के बिना ले लेना भी अपहरण ही है. इस प्रकार का कोई भी कार्य मनोबल, चरित्र, भाग्य, स्वाभिमान, यश और समृद्धि को हानि पहुंचाता है. उसे पूजा-पाठ का फल तक नहीं मिलता. आइये, इन बातों को अपने जीवन में यथा संभव उतारने का प्रयास कर अपने जीवन को और अधिक सार्थक बनाएँ.
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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