Published By:धर्म पुराण डेस्क

कुरुक्षेत्र में सूर्य ग्रहण क्यों?

सूर्यग्रहण के समय आज भी भारत की लाखो जनता कुरुक्षेत्र में स्नान दान आदि अनुष्ठान करने के लिए इकट्ठी होती है। शास्त्र में भी सूर्योपराग और कुरुक्षेत्र का विशिष्ट संबंध वर्णित है, यह क्यों?

जैसे मानव शरीर में सभी अंग विशेष का विन्यास है, ठीक इसी प्रकार पृथ्वी आदि पिण्डों में भी सभी स्थानों की विशिष्टता के कारण उसी अनुसार अंगों की वैज्ञानिक कल्पना की जाती है। उसके अनुसार हमारी पृथ्वी के सर्वोच्च प्रदेश हिमालय की गौरी शिखर नामक अधित्य का सिर स्थानीय है। 

उसके समान सूत्र में आने चाला अधोभाग पैर स्थानाय है तथा दाएँ-बाएँ के प्रदेश भुजा स्थानाय हैं। इसी भांति अन्य अंग समझ लेने चाहिये। भारत माता की चित्र कल्पना में भी इसी स्वाभाविकता का आश्रय लिया है। इसी प्रकार समस्त तीर्थ मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, प्राण और आत्मा आदि का प्रतिनिधित्व करने वाले अंगोपांग हैं।

कुरुक्षेत्र को वेदो में 'कुरुक्षेत्रं ब्रह्म सदनम्' स्मरण किया है मानवपिण्ड में जिस प्रकार समस्त पिण्ड व्यापक, चेतन जीव का आवास-स्थान विशेषतया 'हृदय' प्रकट किया है, इसी प्रकार हमारे भू-पिण्ड में कुरुक्षेत्र प्रदेश भी ब्रह्म सत्ता का विशेषतया आवास-स्थान है, अर्थात पृथ्वी का हृदय है। 

जैसा कि अथर्ववेद के ‘सा नो भूमिः प्राणमायुर्दधातु' आदि प्रमाणों से प्रमाणित है ब्रह्माण्ड में प्राण-शक्ति का स्रोत एकमात्र सूर्य है। जैसा कि “प्राणेन विश्वतो मुख सूर्य देवा अजनयन्” अथर्व इत्यादि प्रमाणों से सुस्पष्ट है।

जब राहु अपर नामक चेतनदेवाधिष्ठित चन्द्र पिण्ड की छाया से सूर्य आच्छादित हो जाता है तब पृथ्वी स्थानीय प्राणी सूर्य से निरंतर प्राप्त होने वाली प्राण-शक्ति के अवरुद्ध हो जाने पर उससे वंचित होने लगते हैं। 

ऐसे समय में सांसारिक कार्य बंद करके ईश्वरावन, दान, पुण्य, पूजा पाठ आदि धार्मिक कार्यों से अपनी क्षीयमाण प्राणशक्ति को स्थिर रखना परमावश्यक हैं। अन्यथा भयानक हृदय रोग की छाप पड़ जाने का खतरा है। 

अतः अन्य स्थानों की अपेक्षा पृथ्वी का हृदय प्रदेश कुरुक्षेत्र धर्मानुष्ठानों के लिए और भी अधिक उपयुक्त है। इसलिए आस्तिक लोग सूर्य ग्रहण के दुष्प्रभाव से बचने के लिए सूर्यग्रहण के समय सर्वत्र धर्मानुष्ठान करते है और विशेषतया कुरुक्षेत्र में इकट्ठे होकर सूर्य ग्रहण से पड़ने वाले भयावह हृदय रोग की छाप का पृथ्वी के हृदय प्रदेश कुरुक्षेत्र के स्थान प्रभाव से अपमार्जन करते हैं।

कुरुक्षेत्र पृथ्वी का प्राण प्रधान हृत् प्रदेश है- यह बात अगणित प्रत्यक्ष हेतुओं से प्रमाणित की जा सकती है। महाभारत के युद्धार्थ जब भूमि निश्चित की जाने लगी तो श्रीकृष्ण सहित पांडवों ने देखा कि कुरुक्षेत्र प्रदेश के एक हलवाहक किसान का लड़का खेत में खेलते-खेलते सर्पदंश से मर गया, किसान ने उसके शव को भूमि में गाड़ कर पूर्ववत् तत्काल पुनः हल जोतना आरम्भ कर दिया। 

भगवान ने निश्चित किया कि जिस क्षेत्र के प्रभाव से अनपढ़ किसान भी इतने प्राणवान हैं कि वे पुत्रशोक की उपेक्षा करके कर्तव्य पालन में जुट जाते हैं ऐसे क्षेत्र में किया युद्ध अवश्य ही निर्णायक युद्ध होगा। कोई भी पक्ष यहाँ प्राणों के मोह से 'धर्मयुद्ध' से विचलित न होगा। अंत में हुआ भी यही|

ग्रहण का दुष्प्रभाव सगर्भा के उदस्थ बालकों पर भी पड़ता हुआ प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। स्थान खंडेला, राजस्थान में एक नास्तिक पंडित महाशय ने ग्रहण के दिन जानबूझकर पुंसवन संस्कार कराया और यजमान की पत्नी को यह कहकर भरपेट खिलाया कि "ग्रहण के सूतक में नहीं खाना- यह सब पाप लीला है, आकाश के तारे हमारा क्या बिगाड़ सकते है" परिणामस्वरूप- लंगड़ा, लूला और विक्षिप्त बालक उत्पन्न हुआ।

कुरुक्षेत्र तीर्थ में जो तालाब है, उसके जल में सोमांश रहता है। यह रहस्य वेद में स्पष्ट उद्घाटित किया गया है। यथा-

शर्यणावति सोमविन्दुः पिब वृत्रहा बलं दधात आत्मनि करिष्यन् वीर्य महदिन्द्रायेन्दो परिस्रव। 

अर्थात्- (सायणभाष्यानुसार भाषार्थ) (शर्यणावन्नाम कुरुक्षेत्रस्य जडनायें सरः तत्र स्थितो सोमं ) 'शर्यणावत' यह नाम कुरुक्षेत्र के आधे भाग में स्थित तालाब का है। उसमें स्थित जो सोम (अमृतांश) है उसके पान से आत्मबल प्राप्त करके इन्द्र वृत्रासुर का वध करने में समर्थ हुए।


 

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