Published By:दिनेश मालवीय

“नारी नरक की खान”, कैसे और किसके लिए ..

“नारी नरक की खान”, कैसे और किसके लिए ।।दिनेश मालवीय हम अपने शात्रों और परम्पराओं की ऎसी बातों को सही सन्दर्भ और सही अर्थों में आपके सामने लाने की कोशिश करते हैं, जिनके विषय में सामान्य रूप से भ्रम की स्थिति होती है। साथ ही जिनके विषय में सनातन धर्म के विरोधियों द्वारा दुष्प्रचार कर हमारे मन में अपने आदर्शों के प्रति अश्रद्धा का भाव पैदा करने की कोशिश की जाती है। श्रीरामचरितमानस संसार का श्रेष्ठतम भक्ति ग्रन्थ माना जाता है। इस महाकाव्य की प्रशंसा में कुछ भी कहने के लिए बड़े से बड़े विद्वान वाणी की असमर्थता व्यक्त करते हैं। 

अनेक ग्रंथों की तरह “मानस” के साथ यह शरारत हुई है कि, इसमें कुछ बातों को संदर्भ से हटकर दोहरा कर भ्रम की स्थति निर्मित की गयी है। इसमें एक दोहे की एक अर्धाली को पकड़कर संत तुलसीदास को नारी-विरोधी बताने की कुत्सित कोशिश की जाती है। यह अर्धाली है- “नारी नरक की खान”। किसी भी बात या वक्तव्य का एक संदर्भ और परिप्रेक्ष्य होता है। वह बात उसी के भीतर प्रासंगिक होती है, सामान्य रूप से नहीं। आइये, तुलसीदासजी द्वारा भगवान् श्रीराम के मुख से कहलायी गयी इस बात को उसके पूरे संदर्भ में समझने की कोशिश करते हैं। “अरण्य काण्ड” में देवर्षि नारद भगवान श्री राम से भेंट करने जाते हैं। 

बहुत सी ज्ञान चर्चा के बाद नारदजी श्रीराम से एक प्रश्न करते हैं कि, जब मैंने विवाह करने की इच्छा की थी, तो आपने मुझे क्यों नहीं करने दिया ? श्रीराम उनसे कहते हैं कि जिस तरह माँ अपने बालक की रखवाली करती है, उसी तरह मैं भी अपने परम भक्तों की रक्षा करता हूँ। जो लोग संसार में सिर्फ मेरे ही भरोसे रहते हैं, उनकी मैं उनकी विशेष रूप से सम्हाल करता हूँ। जैसे छोटा बच्चा जब दौड़कर आग और सांप को पकड़ने जाता है, तो माता उसे अपने हाथों से अलग करके बचा लेती है। सयाना हो जाने पर उस पुत्र पर माता का प्रेम तो रहता है, लेकिन वह उसकी उस प्रकार चिन्ता नहीं करती जैसी शिशुपन में करती थी। ज्ञानी लोग मेरे प्रौढ़ बालकों की तरह हैं। 

तुम जैसे भक्त मुझे अपना सारा जीवन समझते हैं और मेरे ही बल पर विश्वास करते हैं। इस तरह वह मुझे शिशु की तरह ही प्रिय हैं। श्रीराम कहते हैं कि, ऐसे भक्तों के लिए सबसे दारुण दुःख देने वाली मायारूपी नारी है। जप,तप,नियम आदि करने वाले तुम जैसे भक्तोंके लिए यह बहुत विघ्नकारी है। यानी यह बात श्रीराम ने नारद जैसे परम योगी-भक्त और उन जैसे लोगों के लिए कही है। यह वक्तव्य श्रीराम या तुलसीदास का सामान्य वक्तव्य नहीं है। यह बात उन्हीं लोगों के लिए हैं, जो इस श्रेणी में आते हैं। लेकिन इस बात को लेकर इतना बवाल मचाया गया है कि, पूछिए मत। महाकवि तुलसीदास को नारी विरोधी बताने के लिए इस बात का खूब प्रचार किया जाता है। ऐसा प्रचार करने वालों की बातों से ऐसा लगता है जैसे कि, गोस्वामी जी ने पूरी रामचरितमानस सिर्फ नारी का विरोध करने के लिए लिखी है। 

इस शरारती लोगों को यह नहीं दिखता कि, रामचरितमानस में ही माता कौशल्या, माता सुमित्रा, देवी सीता, उर्मिला, मांडवी, श्रुतिकीर्ति जैसे महान स्त्री चरित्र भी हैं। यहाँ तक कि कैकेयी जैसी स्त्री भी श्रीराम को वनवास देने के बाद घोर पश्चाताप करती है। वह एकदम बदल जाती है। उसे खुद आश्चर्य होता है कि, उसने यह सब कैसे कर दिया। इसी मानस में परम दुष्ट रावण की पत्नी मंदोदरी का भी महान चरित्र है। वह रावण को पांच बार समझाती है कि, वह सीताजी को सम्मान के साथ वापस कर श्रीराम के साथ समझौता कर ले। रामचरितमानस के इस वक्तव्य की तुलना में यदि अन्य भाषाओं के साहित्य में नारी संबंधी वक्तव्यों की तुलना करें, तो वे तो सामान्य वक्तव्य हैं।

महान अंग्रेज़ी कवि मिल्टन “The Paradise Lost” में तो नारी की सामान्य रूप से निंदा की गयी है। उसे पाप का मूल बताया गया है। शेक्सपीयर ने नारी को दुर्बलता का दोस्सरा नाम बताया है। उसे कायरता का दूसरा रूप बताते हुए, छल और कपट की मूरत बताया है। पश्चिम में तो हर औरत को हमेशा ही  “ईव” कहा गया है, जो मनुष्यों को आकर्षित कर पतित बनाती है। पश्चिमी देशों के धर्म ग्रंथों में स्त्रियों को सभी पापों का मूल माना जाता है। उसने एडम को आकर्षित कर पतित किया, जिसके कारण उसे स्वर्ग से निकलना पड़ा। इस विषय पर पश्चिमी धर्मग्रंथों के पन्ने के पन्ने भरे पड़े हैं। अपने संत कबीर भी स्त्रियों कि निंदा में कहाँ पीछे हैं। 

देखिये एक बानगी- नारी की जाईं परे अँधा होत भुजंग,  कबिरा तिनकी क्या गति नित नारी के संग। इस तरह की बातें फैलाकर सनातन धर्म को बदनाम करने वाले समझ लें कि भारत संसार के  एक मात्र देश है, जहाँ ईश्वर की आराधना स्त्री के रूप में की जाती है। उसे पाप का नहीं, समस्त श्रृष्टि का स्रोत और आधा माना जाता है। इसी देश में अनेक ऎसी विदूषियाँ हुई हैं, जिनका ज्ञान बहुत अद्वितीय था। इनमें गार्गी, विश्ववारा, घोष, अपाला, लोपामुद्रा, रोमश,सिकता, निवावरी आदि शामिल हैं। आज ज़रुरत इस बात है कि हम अपने धर्म और संस्कृति को दूसरों की नज़र से देखना छोड़ दें। हम उनकी हर बात को आँख मूंदकर नहीं मानें और अपने मूल ग्रंथों का अध्ययन करें।  

धर्म जगत

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