 Published By:दिनेश मालवीय
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इस वर्ष नवरात्रि प्रारंभ दिवस पर अद्भुत संयोग, तलवार और कलम के महान साधक.. दिनेश मालवीय
इस वर्ष शक्ति की आराधना का नवरात्रि का पावन पर्व 7 अक्टूबर से प्रारंभ हो रहा है. क्या अद्भुत संयोग है कि, इसी तिथि को धर्म की रक्षा के लिए अपना सबकुछ बलिदान कर देने वाले दसवें सिख गुरु शक्ति-पुत्र गोविन्द सिंह जी का बलिदान दिवस है. इस वर्ष जो भी लोग नौ दिन तक शक्ति की आराधना शुरू करने जा रहे हैं, उन्हें गुरु गोविन्द सिंह जी को भी पूरी ही श्रद्धा के साथ याद कर उनके बताये मार्ग पर चलने का संकल्प लेना चाहिए. गुरु गोविन्दसिंहजी भारत में एक ऐसे महापुरुष हुए हैं, जिन्होंने हारकार पस्त हो चुके भारतीय लोगों को “सिंह” यानी शेर बनाया. उनमें अन्याय और अत्याचार से लड़ने का जोशो-जूनून पैदा किया. गुरुजी ने भारत के लोगों में खोया हुआ आत्मविश्वास फिर से जगाकर उन्हें जीवन की सार्थकता प्रदान की. गुरु गोविन्दसिंहजी ने 1669 में अत्याचारियों से लड़ने के लिए खालसा पंथ की स्थापना की. उन्होंने पहली बार अपने नाम के आगे “सिंह” लगाया और तभी से सभी सिखों के नाम के साथ “सिंह” अनिवार्य रूप से जुड़ गया. गुरुजी का असली नाम गोविन्द राय था. खासला, यानी धर्म की रक्षा के लिए लड़ने वाले पवित्र लोगों की सेना, सजाने के बाद उन्होंने अपना नाम गोविन्दसिंह रख लिया. आज हर भारतीय को यह जानना बहुत ज़रूरी है कि, उन्हें “राय” से “सिंह” क्यों बनना पड़ा. वह ऐसा दौर था जब देश में कट्टरवादी धर्मान्ध औरंगजेब का राज था. उसने हिन्दू धर्म को समाप्त करने का बीड़ा उठाया हुआ था. उसने अपनी फ़ौजी ताकत का इस्तेमाल कर हिन्दुओं के मन में ऐसा खौफ पैदा कर दिया कि, उनका सारा आत्मविश्वास ही लगभग ख़त्म हो गया.
गोविन्द राय के गोविन्द सिंह बनने की प्रक्रिया उनके पिता की शहादत से शुरू होती है. उनके पिता गुरु तेगबहादुरजी का दिल्ली के चाँदनी चौक में बेरहमी से सिर कट दिया गया था. दिल्ली का “शीशगंज गुरुद्वारा का यह नाम इसीलिए पडा कि, वहां उनका शीश एक शिष्य चुपके से उठाकर ले गया था. कारण केवल इतना था कि तेगबहादुरजी ने इस्लाम कबूल करने से इनकार कर दिया था. उनके पास कश्मीर के पंडित शिकायत लेकर आये कि, आतताइयों द्वारा उनकी बहन-बेटियों का अपहरण कर उन्हें मुगलों के हरम में भेज दिया जाता है. उन पर घोर अत्याचार किये जा रहे हैं. उन्हें धर्म बदलने के लिए मजबूर किया जा रहा है. गुरु तेगबहादुर इस बात से बहुत व्यथित हो गये. गोविन्द सिंह जी ने दिया पिता को बलिदान के लिए प्रेरित : गुरु तेगबहादुरजी इस बात को सुनकर बहुत व्यथित हो गये. उस समय उनके नौ वर्षीय पुत्र गोविन्दराय भी वहाँ उपस्थित थे. तेगबहादुरजी ने कहा कि, इस स्थिति को बदलने के लिए किसी महापुरुष को बलिदान देना पड़ेगा. उसकी बलिदानी के खून से ही भारतीयों का ठंडा पड़ गया खून गरम होगा. उनके पुत्र गोविन्दरायजी ने कहा कि, इस समय भारत में आपसे बड़ा महापुरुष कौन है ? आप ही बलिदान दीजिये. तेगबहादुरजी ने लोगों से कहा कि,जाकर कह दो कि, यदि हमारे गुरु तेगबहादुरजी इस्लाम कबूल कर लेंगे, तो हम भी कर लेंगे. औरंगजेब ने तेगबहादुरजी से इस्लाम कबूल करने को कहा. उन्होंने मना कर दिया. उनका सिर सरेआम कलम कर दिया गया. यहीं से गोविन्दराय के गोविन्दसिंह बनने की कहानी शुरू होती है. उन्हें अच्छी तरह समझ आ गया कि, कि अब धर्म की रक्षा के लिए हथियार उठाने के अलावा कोई रास्ता नहीं है. उन्होंने बैसाखी के दिन खालसा की स्थापना की. खालसा मतलब पवित्र. जो लोग उस सेना में शामिल होंगे वे पवित्र लोग ही होंगे. उन्होंने खालसा की शुरूआत बहुत नाटकीय तरीके से की.
खासला की स्थापना : बैसाखी के दिन लगभग बीस हज़ार लोगों की संगत एकत्रित हुयी थी. उन्होंने उपस्थित लोगों से कहा कि मैं खालसा बनाने जा रहा हूँ. इसके लिए मुझे ऐसे लोगों की ज़रुरत है, जो मेरे आदेश पर अपना सिर कटा सकें. सबसे पहले दयाराम नाम का व्यक्ति उनके सामने गया. वह उसे मंच के पीछे ले गये. उन्होंने वहां एक बकरे को काटकर उसके खून से सनी तलवार लेकर बाहर आये. पूछा कि, और कौन है, जो अपना शीश दे सकता है. एक-एक कर चार लोग और सामने आये. इनके नाम थे धर्मदास, मोहकम चंद, हिम्मतराय और साहबचंद. उनके साथ भी उन्होंने ऐसा ही किया. बाद में उन्हें जीवित लेकर सबके सामने आये. इन्हीं पांच लोगों को “पंज प्यारे” कहा जाता है. आज भी धर्म के हर काममें प्रतीक रूप से पांच लोग “पंज प्यारे” के रूप में सबसे आगे रहते हैं. इसके बाद पूरी संगत ने कहा कि, हम धर्म की रक्षा के लिए अपना जीवन देने को तैयार हैं. गुरुजी ने एक बर्तन में रखे पानी को तीन बार अपनी तलवार से काटा और उसे पहुल यानी अमृत कहा. उन्होंने पंज प्यारों को वह अमृत पिलाया और खुद भी पिया. महापुरुष कुछ काम प्रतीकात्मक करते हैं, जिनका असर बहुत गहरा होता है. उन्होंने खालसा के लोगों के लिए पांच चीजें अनिवार्य कर दीं- केश, कंघा, कड़ा, कच्छा और कटार. केश इस बात का प्रतीक था कि हमें शरीर का कोई मोह नहीं है. हम साधुओं की तरह केश धारण करेंगे. कंघा स्वच्छता का प्रतीक है. यानी सिख हमेशा स्वच्छ और पवित्र रहेंगे.कड़ा इस बात का प्रतीक है कि, सिखों के हाथ लोहे की तरह मजबूत होने चाहिए. कच्छा ब्रह्मचर्य का प्रतीक है. यह शारीरिक और आध्यात्मिक बल के लिए आवश्यक है. पांचवां प्रतीक कटार या तलवार है, जिसका उपयोग कमज़ोर लोगों की रक्षा और अत्याचारियों के विनाश के लिए होना है. महान लेखक : गुरु गोविन्दसिंहजी असि और मसि यानी तलवार और लेखन दोनों के धनी थे. उन्होंने महान साहित्य की रचना की, जिसके माध्यम से भारतीयों को वीर और निडर बनने का संस्कार दिया. उनका “दशमेश” ग्रन्थ साहित्य की एक महान कृति है. इसमें उन्होंने “चंडी चरित्र” को बहुत महत्त्व दिया. इसमें उन्होंने बताया कि शक्ति की आराधना कर उसे जगाकर ही धर्म और निर्बलों की रक्षा की जा सकती है. हर काल में महापुरुषों को अपने समय के लोगों को प्रेरित करने के लिए प्राचीन महापुरुषों के चरित्र का सहारा लेना पड़ता है. गुरुजी ने भी भगवान राम के चरित्र का ऐसा ओजस्वी वर्णन किया कि, जिसे सुनकर किसीकी भी शिराओं में खून खौल उठे. इसे “गोविन्द रामायण” कहा जाता है. गुरु गोविन्दसिंहजी ने और भी बहुत साहित्य की रचना की, जिसका मुख्य विषय वीरता, देशप्रेम और धर्मप्रेम ही है. वह किसीसे नहीं डरे और अपने अनुयायियों को भी निर्भीक होने का संदेश दिया. उन्होंने चौदह लड़ाइयाँ लड़ीं और जीतीं. उनका कहना था कि, लड़ाई में हथियार से ज्यादा हौसले का महत्त्व होता है. हौसला हमेशा बड़ा रखो. धर्म की रक्षा के लिए उन्होंने अपने चारों पुत्रों की बलिदानी दी. एक युद्ध में सीने पर गहरा घाव लगने के बाद 7 अक्टूबर 1708 में वह दिव्य ज्योति में विलीन हो गये. भारत हमेशा उनका ऋणी रहेगा.
 
                                मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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