रत्नों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में प्रचलित है कि अम्बरीष नामक राजा महान विद्वान और देव, गौ, विप्र, ऋषियों का पूजक और प्रजापालन में दत्तचित्त रहा। एक दिन वह स्नानादि करके, वस्त्र, आभूषण पहन, स्वयं रत्नों ..को धारण कर और समस्त रत्नों को अलग-अलग पात्रों में सजा कर राजसभा में ले आया।
राजसभा के मध्य रत्नों की चमक-दमक और सुन्दरता तथा आकर्षण देख कर गहन सोच में लीन हो गया कि ईश्वर ने इन रत्नों को कैसे उत्पन्न किया। उसने सभा में उपस्थित सभी सभाजनों (विप्र, ऋषि और महापुरुषों) से कहा- आप लोग इन रत्नों तथा उप जातियों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में कुछ बताएं। किन्तु किसी से भी राजा के प्रश्न का उत्तर नहीं मिला।
उसी क्षण राजसभा में महर्षि पराशर पधारे। फिर राजा ने उनसे भी यही प्रश्न किया। महर्षि पराशर ने कहा- हे राजन! रत्नों की गाथा अठारह पुराणों और चारों वेदों में विस्तार से वर्णित है। मैं संक्षेप में उसका वर्णन करता हूँ। एक बार प्रभु शिव शंकर जी से पार्वती जी ने प्रश्न किया- हे स्वामी कैलाशपति! मणि रत्न, उपरत्न, संग, मोहरा कैसे उत्पन्न हुए, इन पर ग्रहों का प्रभाव कैसे पड़ा और इन्हें धारण करने वाले मनुष्यों पर ये किस प्रकार अपना चमत्कार या प्रभाव दिखाते हैं, इन सबका वर्णन कीजिये। प्रभु शिवजी ने प्रसन्नतापूर्वक मणियों, रत्नों आदि के सम्बन्ध में कथा कही।
यह सभी रत्न व उपरत्न पत्थर ईश्वर के ही रूप हैं। महर्षि पराशर जी ने राजा अम्बरीष से कहा- राजन्! भगवन् ! सदाशिव ने माँ पार्वती के पूछने पर रत्नों का सविस्तार वर्णन किया जिसे मैंने सूक्ष्म में बताया। जिस पर इन रत्नों, उपरत्नों, पत्थरों एवं मोहरों की छाया पड़ती है वह मनुष्य धन्य हो जाता है।
विधि-विधान के अनुसार इनके पहनने खाने आदि से मनुष्य मृत्युलोक में भी स्वर्ग तुल्य सुख प्राप्त करता है। स्वर्गलोक की विभिन्न चमत्कारी मणियों तथा पाताल लोक की सर्पमणियों के सम्बन्ध में समस्त बातों का वर्णन करने के पश्चात महर्षि पराशर राजा अम्बरीष से कहते हैं- हे नरेश! अब मैं पृथ्वी पर पाये जाने वाले रत्नों तथा उसकी अन्य जातियों का वर्णन करता हूँ
प्राचीन काल में एक बलि नाम का राजा बहुत निर्दयी मायावी असुर था। वह देवताओं से द्वेष रखता था, इन्द्र का आसन हथियाने के लिये उसने सौ अश्वमेध यज्ञ किये। जब इन्द्र देव युद्ध में कई बार उनसे पराजित हुए तो इन्द्र देव तथा समस्त देवता विष्णु भगवान के पास गए और बलि से मुक्ति दिलाने की प्रार्थना की।
भगवान विष्णु ने कहा कि यज्ञ बेदी में बलि की भेंट देने से ही यह सम्भव है। ऐसा कहकर भगवान विष्णु ब्राह्मण का रूप धारण करके राजा बलि के यज्ञ में पहुँचे तथा उससे आपने साढ़े तीन पग पृथ्वी मांगी। अपने तीन डगों में ही भगवान ने तीनों लोकों को माप लिया तथा शेष आधे डग में उन्होंने बलि का शरीर माँगा।
राजा बलि असुर अवश्य था किन्तु वह सत्यवादी और दानवीर भी था। दानवीर बलि यह जानकर कि वह ब्राह्मण कोई और नहीं स्वयं भगवान विष्णु हैं उसने सहर्ष ही अपना शरीर भगवान् विष्णु को अर्पित कर दिया। प्रभु के चरणों का स्पर्श पाते ही बलि का शरीर हीरे में परिवर्तित हो गया।
तत्पश्चात देवेन्द्र ने अपने शस्त्र 'वज्र' के माध्यम से उसके शरीर पर प्रहार किया तो उसके शरीर के सब अंगों तथा प्रत्येक तत्त्व से विभिन्न वर्णों के रत्नों की उत्पत्ति हुई। भगवान् शंकर ने अपने चार त्रिशूलों पर बारह राशियों एवं नौ ग्रहों को स्थिर करके बलि के दिव्य शरीर को मृत्युलोक में गिराया।
ग्रहों व राशियों ने बलि के जिस-जिस अंग पर अपना अधिकार किया वे अंग ही उन ग्रहों व राशियों के लिये रत्न की खानें बनी। पृथ्वी पर यही रत्न मनुष्यों को उनके ग्रहानुसार फल देते हैं तथा लाभप्रद सिद्ध होते हैं। इन समस्त रत्नों का सार इस प्रकार है
1. देवेन्द्र के वज्र प्रहार से जो रक्त बलि के शरीर से निकल कर पृथ्वी पर जहाँ गिरा वहाँ माणिक्य रत्नों की खानें उत्पन्न हुईं । यह रत्न सूर्य ग्रह का है।
2. चन्द्र ग्रह ने असुर के चित्त को हरकर आठ स्थानों पर स्थित किया – 1. स्वाति नक्षत्र, 2 शंख, 3. सर्प, 4. शूकर, 5. गज, 6. मीन, 7. सीप और 8. सीप। राजा बलि का मन आठ स्थानों पर स्थित होने के कारण इनसे आठ प्रकार के मोती उत्पन्न हुए।
3. राजा बलि के मस्तिष्क से निकला रक्त समुद्र में जाकर गिरा और विद्रुम मणि या रत्न उत्पन्न हुआ।
4. बलि के शरीर का पित्त पृथ्वी पर जहाँ गिरा वहाँ पन्ना रत्न की खानें उत्पन्न हुई।
5. बलि के शरीर का कटा हुआ माँस जहाँ गिरा वहाँ पर पुखराज रत्न की खानें हुई।
6. बलि के वज्र से कटे सिर के टुकड़े जहाँ गिरे वहाँ पर हीरे की खानें उत्पन्न हुई जो कि सब रत्नों में श्रेष्ठ स्थान रखता है।
7. बलि के नेत्रों की पुतलियों के टुकड़े जहां गिरे वह स्थल नीलम रत्न की खानें बन गयी।
८. बलि के मेदा से गोमेद रत्न उत्पन्न हुआ।
9. देवताओं ने बलि के जनेऊ को तोड़ा तब उससे लहसुनिया रत्न की उत्पत्ति हुई।
10. बलि के शरीर की कटी हुई नसें पृथ्वी पर जहाँ-जहाँ गिरी वहाँ से फिरोजा उपरत्न उत्पन्न हुआ इसे वैदूर्य मणि भी कहते हैं।
11. बलि के नेत्रों से चन्द्रज्योति के समान सफेद चन्द्रकान्त मणि की उत्पत्ति हुई।
12. घृत मणि बलि की कांख से उत्पन्न हुई।
13. बलि के शरीर की त्वचा से तेलमणि उत्पन्न हुई।
14. बलि के कफ से उपलक मणि की उत्पत्ति हुई।
15. बलि के पसीने से स्फटिक मणि पैदा हुआ।
16. उसके कटे हुए सिर और वायुवीर्य के मिलकर गिरने से पृथ्वी पर अमृतमणि उत्पन्न हुई।
17. बलि का हृदय टुकड़ों में विभाजित होकर उत्तर पर्वतों के शिखर पर गिरा जहां वह पारसमणि के रूप में उत्पन्न हुआ। एक समय भगवान शंकर और माता पार्वती वहाँ पहुँचे और तपस्या के लिए समाधि में लीन हो गये। उनके वहाँ से प्रस्थान के समय पारसमणि ने सिर झुकाकर निवेदन पूर्ण होकर कहा- हे भोलेनाथ, जब से आप यहाँ पधारे हैं मेरे सारे कष्टों का निवारण हो गया।
लोहा, वज्रमणि अर्थात हीरे के समान कठोर होता है मुझे उसी का भय है अतः यह वरदान दीजिये कि दोनों मिलकर एकरूप हो जायें। वरदान देकर शिव-पार्वती कैलाश पधारे। पारसमणि को बहुत आनंद हुआ।
18. बलि की जिह्वा कटकर नदियों व पर्वत पर गिरी जहां पर उलूक मणि उत्पन्न हुई।
19. बलि का मुकुट और केश द्रोण पर्वत पर गिरे। स्वर्ण मुकुट व केश से मिलकर वर्तक मणि उत्पन्न हुई। रामायणानुसार जब लक्ष्मण जी शक्ति के प्रभाव से मूर्छित हुए थे तब सुषेण वैद्य जी ने द्रोण पर्वत से संजीवनी बूटी मंगाई।
हनुमानजी को बूटी लेने भेजा गया किन्तु हनुमान जी बूटी को पहचान न पाने के कारण पूरे पर्वत को ही उठा लाये जिससे लक्ष्मण जी की मूर्छा दूर हुई। तब प्रसन्न होकर श्री राम जी ने हनुमानजी को वर्तक मणि (लाजावर्त) का स्वामी बना दिया।
20. बलि के मल-मूत्र से मासर मणि उत्पन्न हुई। इसके स्वामी असुर हैं। इस मणि को एमनी भी कहते हैं।
21. बलि के वीर्य से भीष्मक मणि की उत्पत्ति हुई। इस प्रकार पृथ्वी लोक में बलि के शरीर-अंगों व तत्वों से इक्कीस रत्नों की उत्पत्ति हुई।
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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