 Published By:धर्म पुराण डेस्क
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बाहर से राग पूर्वक भोग भोगने से जैसा संस्कार पड़ता है, वैसा ही संस्कार मन से भोग भोगने से अर्थात मन से भोगों के चिंतन में रस लेने से पड़ता है।
भोग की याद आने पर उसकी याद से रस लेते हैं तो कई वर्ष बीतने पर भी वह भोग ज्यों-का-त्यों (ताजा) बना रहता है। अतः भोग के चिंतन से भी एक नया भोग बनता है! इतना ही नहीं, मन से भोगों के चिंतन का सुख लेने से विशेष हानि होती है।
कारण कि लोक-लिहाज से, व्यवहार में गड़बड़ी आने के भय से मनुष्य बाहर से तो भोगों का त्याग कर सकता है, पर मनसे भोग भोगने में बाहर से कोई बाधा नहीं आती। अतः मन से भोग भोगने का विशेष अवसर मिलता है। इसलिये मन से भोग भोगना साधक के लिये बहुत नुकसान करने वाली बात है। वास्तव में मन से भोगों का त्याग ही वास्तविक त्याग है।
चौथे श्लोक में भगवान ने कर्म योग और सांख्य योग-दोनों की दृष्टि से कर्मों का त्याग अनावश्यक बताया। फिर पांचवें श्लोक में कहा कि कोई भी मनुष्य किसी भी अवस्था में क्षणमात्र भी कर्म बिना नहीं रह सकता।
छठे श्लोक में हठपूर्वक इन्द्रियों की क्रियाओं को रोककर अपने को क्रिया रहित मान लेने वाले का आचरण मिथ्या बताया। इससे सिद्ध हुआ कि कर्मों का स्वरूप से त्याग कर देने मात्र से उनका वास्तविक त्याग नहीं होता।
 
 
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