कतिपय सज्जन पाश्चात्य भौतिकवादी बाह्य रूप से प्रभावित होकर इस पर कुठाराघात कर रहे हैं- शिखा क्यों धारण करें ? यज्ञोपवीत क्यों पहनें? आदि। उनकी दृष्टि में भारत के पतन का मुख्य हेतु यज्ञोपवीत ही है।
अतः इस लघुकाय लेखक द्वारा उनके चित्त संतुष्ट्यर्थ यह निवेदन कर रहा हूँ कि यज्ञोपवीत का आधार भी विज्ञान ही है। जिस प्रकार भारतीय शासन के प्रतीक तिरंगे झंडे का कोई विज्ञान है, इसमें तीन रंग क्यों हैं? मध्यगत चक्र का तात्पर्य है ? इत्यादि उसी प्रकार यज्ञोपवीत का भी रहस्य है।
यज्ञोपवीत 96 चौआ का होता है। ब्रह्मवर्चसी होने के लिये विप्र के बालक का उपनयन संस्कार पांचवें वर्ष करना चाहिये। जब बालक चार वर्ष व्यतीत कर पांचवें वर्ष में पदार्पण करे, तभी उपनयन युक्त है।
इसका रहस्य यह है कि एक आदमी की आयु सौ वर्ष निर्धारित है, उसमें यह बालक चार वर्ष समाप्त कर चुका है। अब इसे 96 वर्ष और जीवित रहना है। अतः 96 चौआ का यज्ञोपवीत धारण करता है, वह आदर्श है। अतः सब अवस्था में उसी को धारण किया जाता।
यज्ञोपवीत 'नौ गुण' का होता है - यह शरीर अथर्ववेद के अनुसार 'अष्टचक्रा नवद्वारा' है; अतः नवगुण नवद्वार का प्रतीक 4 है। यज्ञोपवीत में तीन तागे हैं। यह बताता है कि जन्मतः मनुष्य तीन ऋणों से ग्रस्त हो जाता है, जिन्हें पितृ ऋण, देव-ऋण और ऋषि-ऋण के नामों से पुकारते हैं।
इसलिये तीन तागे तीन ऋणों के हैं। उन तीन ऋणों के उद्धारार्थ पाँच महायज्ञ का विधान किया गया है, उन्हें मनु ने अनिवार्य बताया है। अतः उसमें पांच ग्रंथि लगाते हैं। इन तीन ऋणों एवं पाँच यज्ञों को हृदय से स्वीकार करना चाहिये। मनुष्य के शरीर में 'हृदय' वाम भाग में स्थित है, अतः यज्ञोपवीत बायें कंधे से दाहिनी ओर धारण किया जाता है।
यज्ञोपवीत त्याग कर भी मनुष्य व्रतों का पालन कर सकता है; किंतु वह उसी प्रकार होगा, जिस प्रकार कोई राष्ट्र अपने राष्ट्रीय प्रतीक झंडे से शून्य हो । एवं जब यज्ञोपवीत संस्कार होता है, तब ब्रह्मचारी समझने लगता है कि अब मेरे ऊपर उत्तरदायित्व आ गया है।
वह आत्मा पवित्रता का अनुभव करने लगता है। इसी के साथ वह हिंदू संस्कृति का चिह्न है, युगों से आया हुआ संस्कार है, जिसके द्वारा हम ऋषि चरित्र का स्मरण करते हैं। अतः द्विज के लिये यज्ञोपवीत अनिवार्य है।
रामानंद जी शास्त्री..
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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