योगासन सम्पूर्ण शरीर को पुष्ट करते हैं। जिससे सेक्स में आनंद व सम्भोग शक्ति की वृद्धि होती है साथ ही कई बाधक रोगों की भी समाप्ति होती है। ऐसे ही कुछ विशेष आसनों का उल्लेख यहाँ किया जा रहा है|
भुजंगासन: छाती, फेफड़े स्वस्थ बनते हैं. बाहों की शक्ति बढ़ती है, स्त्रियों का योनि पथ संकुचित होता है।
सूर्य नमस्कार: यह दस चरणों में होता है। इसमें शरीर के सभी अंगों का व्यायाम होता है। स्त्री-पुरुषों के गुप्तांग इस व्यायाम से पुष्ट होते हैं। यह गर्भ धारण तथा मासिक धर्म में दर्जित है।
उत्तानपादासन: पेट की चर्बी कम होती है, जिसके अभाव में संभोग सुख प्राप्त नहीं होता। मासिक धर्म विकारों में भी उपयोगी है।
पवनमुक्तासन: पेट की चर्बी छंटती है. पुरुषों में शीघ्रपतन व अण्डकोषों के दोष समाप्त होते हैं।
सर्वांगासन: यह शीर्षासन के बाद आसनों का दूसरा राजा कहलाता है। इस आसन से स्त्रियों के योनिविकार सदा के लिए नष्ट हो जाते है। पुरुष में तेज, बल और वीर्य बढ़ता है तथा शरीर सुन्दर हो जाता है।
मत्स्यासन: पेट के सभी रोग दूर होकर जठराग्नि प्रज्वलित होती है। रीढ़ की हड्डी में लचक उत्पन्न होती है। संभोग के बाद उत्पन्न टांगों का दर्द इससे दूर होता है।
जानुशिरासन: स्त्री-पुरुष दोनों के यौनांग बलवान बनते हैं।
सुप्त वज्रासन: इससे स्त्रियों का योनि प्रदेश मजबूत होता है। उन्हें प्रसव के समय पीड़ा नहीं होती।
उत्कटासन: पंजों के बल बैठना ही इस आसन की विशेष मुद्रा है। इससे टाँगें मजबूत, वीर्य वाहिनी नलिका पुष्ट होती है तथा स्त्रियों के योनिविकार दूर होते हैं।
सिद्धासन: यह पुरुषों के लिए लाभदायक है और शीघ्रपतन, स्वप्नदोष और प्रमेह आदि वीर्य विकारों में लाभदायक है। इससे बुरे विचार नष्ट होते हैं तथा वीर्य परिपक्व बनता है।
चक्रासन: इस आसन से काम क्रीडा की क्षमता बढ़ती है। बांहें मजबूत व टांगें शक्तिशाली बनती हैं।
उत्थत अर्ध्वपाद विस्तृतासन या परीपूर्ण आसन: पैर फैलाकर बैठें। फिर दोनों पैर ऊपर उठाकर दोनों हाथों से उनके पंजे पकड़ें। ऐसा करने के बाद शरीर का भार नितम्बों पर आ जायेगा। इस आसन से बाहों और टांगों में शक्ति का संचार होता है। पीठ, नाभि-प्रदेश और पेट आदि अंग स्वस्थ होते हैं।
हृदयस्तंभासन: चित्त लेटकर हाथ सिर की ओर ले जायें और टांगों तथा हाथों को ऊपर उठाएं। ऊपर उठाते समय सांस बाहर निकाल दें और वहीं रोके रखें। सांस छोड़ते समय नीचे ले आयें। इस आसन से लिंग और योनि में सुडौलता आती है।
वज्रासन: इसमें पैरों को मोड़कर पैरों पर ही बैठते हैं। जिन नस नाड़ियों से वीर्य प्रवाहित होता है, वे इस आसन से सुदृढ़ होती है।
मूलबन्ध संकुचन: इसमें साँस के साथ मलद्वार को सिकोडकर योनिस्थान का दृढतापूर्वक संकोचन किया जाता है। युवक-युवती को इसका अभ्यास अवश्य करना चाहिए। यह वीर्य को पुष्ट बनाने में तथा प्रसव के बाद योनिभाग को पुनः संकुचित करने का सर्वोत्तम उपाय है।
शंख प्रक्षालन या वस्ति: इस क्रिया द्वारा पेट की सफाई की जाती है। कब्ज के कारण शरीर में कई विकृतियाँ पैदा हो जाती हैं। इस क्रिया द्वारा आंतों की सफाई करके कई रोगों की रोकथाम की जा सकती है। इस प्रकार एक स्वस्थ मन, एक स्वस्थ शरीर सभी सुखों के लिए उपयुक्त है।
यौगिक जीवन जीकर मनुष्य को सदैव सुख की अनुभूति प्राप्त करना चाहिए।
आर एच लता
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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